मित्रो आज काफी दिनों बाद एक रचना लेकर आया हूँ, उम्मीद है आपको पसंद आयेगी।
"क्या तूने क़दम बढ़ाया"
तेरे चेहरे ने मायूसी-ओ-ग़म का हाल बताया।
दर्द जो दिल में छुपा था, उससे पर्दा न हटाया।।
ये ज़िन्दगी क्या बोझ, ढोने के लिये बनी है,
तिल-तिल मर के, सुंदर मन को जलाया।
मोतबरों से बयां करके, कुछ हल्के हो जाते,
ये मुतमईन सबक, किसीने नहीं सिखाया।
ये नज़ारे, ताबूत-ओ-क़फ़न, ज़मीं पे रह जाते हैं,
फिर किसलिये भाई, हर राज़ तूने छिपाया।
अपनी कब्र खुद खोदते, उनको पता ही नहीं,
रब जहाँ बसे दिल में, उसे नरक बनाया।
ज़ालिम दुनियाँ को छोड़ो, दरकिनार ही कर दो,
खामखा, बिलावजह, सरदर्द है बढ़ाया।
कौन तेरे वास्ते "रत्ती", कितना भला सोचे,
तू बाज़ी जीत सकता है, क्या तूने क़दम बढ़ाया।