जीने की आदत
बिन पिये ही जीने की आदत बना ले
अपने रूठे-टूटे दिल को तू मना ले
मरकज़ मन्ज़िल का देख दिन-रात
उस बिखरी हुई सोच को जमा ले
ये ज़िन्दगी कश के सिवा कुछ और भी है
अगर उड़ाना है तो अपने ग़मों को उड़ा ले
उनको बर्बादियों के ताने-बाने बुनने दे
तू संगदिलों में अपनी जगह बना ले
बेशक हर बात का कुछ तो सबब होता है
जैसे हालात हों उनको वैसा सजा ले
कोई रात अंधेरों को मिटा नहीं सकती
पुकार सुबह के उजालों को बुला ले
पल-पल की खबर धड़कनों को बढ़ाये
उखड़ी हुई साँसों को गले लगा ले
कोई मुतमइन नज़र न आया जहाँ में
कोशिश से "रत्ती" मसलों पे निजात पा ले
शब्दार्थ
मरकज़ = केंद्र, संगदिल = पत्थर दिल,
सबब = कारण, मुतमइन = संतुष्ट
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