तीन घंटे का पर्चा
चंद सांसों का खेल
कुछ कल थीं, कुछ आज हैं,
कुछ कल आयेंगी
ये सांसें एक नज़राना हैं
जिसका हम हर दिन लुत्फ़ उठा रहे हैं
हर सुबह के साथ नयी
दास्तां लिखते रहे
हयात की जानिब से
काँटों को ढोने के सिवा
कुछ न हुआ हासिल
आज कुछ लम्हों ने
थोड़ी देर को हंसाया
और दूजे पल एक सानिहा
दर्द मुंह में दबाये आ धमका
ग़मज़दा दर्दों की
तिरछी नज़र के शिकार से
ज़ख्म हरे भरे
नासूर बनते रहे
फिर इल्ज़ामात का सिलसिला
हक़ीक़त कम और झूठ ज़ियादा
इतना ही नहीं
नाउम्मीदी की दस्तक
फिर सिफर को रु-ब-रु पाया
एकाएक खुदा याद आया
एक बशर की कीमत
सिफर से भी कम आंकनेवाले
ज़माने के लोग, उनके अपने क़ायदे क़ानून
इरादे, वायदे
बेहद चौंकानेवाले, डरानेवाले
एक अंदर की दुनियां
उस दुनियां के अपने सपने
और सपने कभी सबके साज़गार नहीं होते
उनको साकार करने की कुव्वत नहीं
और भूख की कमी है
और ऐसे जीनेवालों का इलाज तो
खुदा के पास भी नहीं
ख़ैर लुढ़कते, गिरते, चलते
अश्क़, बहाते ,सुखाते
दमे आखिर की दहलीज़ पर
चार सू देखा
अलविदा कहने के सिवा वक़्त ही कहाँ हैं
न सजदे में हाथ उठाये, न झुके
जहाँ खड़े थे वहीँ टिके रहे
ये हयात का तीन घंटे का इम्तहान था
जिसमे एक इंसान था
जिसने अपने आवारा दिल की सुनके
सिर्फ अपनी ज़िन्दगी जी
तोषे का ख्याल न किया
सरमाया बटोरते रहे
खुशियाँ नहीं बांटी
दर्दों को दावत दी
इस खुली किताब में
कुछ पन्ने सियाह हैं
कुछ लहू से लिखे हैं
खुद के खरीदे गुनाहों की फेहरिस्त लम्बी है
उसका हिसाब-किताब, लेख-जोखा
उसकी अदालत में होगा
फिर एक दिन सांसों ने कहा
इस जिस्म में घुटन होती है
अब नहीं आयेंगे, हमें जाना होगा
उनके जाते ही परचा पूरा हो गया
अधूरे खाब तकते रह गये
सवाब और गुनाह बिना बताये
रूह के साथ चल दिये…।
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