परिचित
एक ढून्ढो हज़ार मिलते हैं,
दिल तोड़नें वाले सब यार मिलते हैं,
जानें क्या सुकून मिलता है उनको,
बड़े नसीब से वफादार मिलते हैं,
हमारा बोलना, हंसना, कुछ भी गवारा नहीं,
जानें किस मकसद से, मेरे पीछे चलते हैं,
बैर ही बसता है बस उनके दिलों में
मोहबत के अफसानें होठों पे लिये रहते हैं,
और पूछते हैं मिज़ाज, रोज़ ही हमसे,
सारे भेद लेके ही मेरे घर से निकलते हैं,
उनसे नज़रें चुराना, आदत सी बन गयी है,
कैसा इत्तेफाक़ है, वो हर मोड़ पे मिलते हैं,
माना के काँटे भी होते हैं, फूलों के चमन में,
"रत्ती" मासूम हो पतझड़ में कहाँ फूल खिलते हैं
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