ग़ज़ल - १३
बात झूठी भी खरी होने लगी।
वो कहावत अब सही होने लगी।।
रास्ते ये प्यार के, मंज़िल हसीं,
उनसे मुझको दिल्लगी होने लगी।
ख्वाहिशें उस चाँद की बढ़ने लगीं,
तू-तू मैं-मैं रोज़ ही होने लगी।
रात सारी गुफ़तगू में थी मगर,
सुब्ह चुप-चुप थी, दुखी होने लगी।
जगमगाये, झिलमिलाये ख़ाब जो,
चाहतें उनकी बड़ी होने लगी।
ज़ख्म खुद ही भर गये, देखा उसे,
आज हमको फिर ख़ुशी होने लगी।
है चरागों के बगल में रौशनी,
दूर सारी बेबसी होने लगी।
वो खुदा थे, रहनुमां भी, चल दिये,
उनके जाने से कमी होने लगी।
इश्क़ को तुम रोग "रत्ती" मान लो,
एक पल में आशिक़ी होने लगी।
बात झूठी भी खरी होने लगी।
वो कहावत अब सही होने लगी।।
रास्ते ये प्यार के, मंज़िल हसीं,
उनसे मुझको दिल्लगी होने लगी।
ख्वाहिशें उस चाँद की बढ़ने लगीं,
तू-तू मैं-मैं रोज़ ही होने लगी।
रात सारी गुफ़तगू में थी मगर,
सुब्ह चुप-चुप थी, दुखी होने लगी।
जगमगाये, झिलमिलाये ख़ाब जो,
चाहतें उनकी बड़ी होने लगी।
ज़ख्म खुद ही भर गये, देखा उसे,
आज हमको फिर ख़ुशी होने लगी।
है चरागों के बगल में रौशनी,
दूर सारी बेबसी होने लगी।
वो खुदा थे, रहनुमां भी, चल दिये,
उनके जाने से कमी होने लगी।
इश्क़ को तुम रोग "रत्ती" मान लो,
एक पल में आशिक़ी होने लगी।