गीत न. ४
इन झीलों के मुख पे लाली नहीं
हुई ठंडक गुम हरियाली नहीं
है रात पे पहरे जो खौफ भरे
सुब्ह के चेहरे लगे डरे-डरे
दोपहर आंसुओं भरी खाली नहीं
ये मौसम कटीले जाड़ों का
और पत्थर सीना पहाड़ों का
उजड़े चमन का कोई माली नहीं
ढलती उम्र संग ढले नज़ारे
आखिरी वक़्त कोई न पुकारे
"रत्ती" हम मुसाफिर सवाली नहीं
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