जुड़वा भाई
कभी दो भाई ऐसे देखें हैं
जो पास होकर भी दूर हैं
पहला बाहर वाला
हर वक़्त दुनियां के सामान
ऐशो-आराम में खोकर
ज़हन में कूड़ा भरता गया
दूजा अंदर वाला
उसे देख जलता गया
वो नज़ारा था, वो वहम था, जो देखा था
क्या था उसमें
सुख-दुःख, दर्द-ग़म थे
जाम की तरह सीने में उतार लिये
नज़ारे देख-देख के सोचने को मजबूर ज़हन
तो बावरा हो गया, ग़ुलाम हो गया
सुनता है उसकी सारी
बेतुकी जली-कटी बातें
कौन उसे यह सब सिखाता है?
बताता है, समझाता है
वो जलता है, जलाता है
खुद ही सुलगता है और
अपने अंदर की दुनिया को भी जलाता है
ये आँख और कान
पल-पल की खबर देते रहते हैं दुनियां की
क्या ये दुश्मन हैं हमारे ?
सच पूछिये तो हैं भी और नहीं भी
सच पूछिये तो हैं भी और नहीं भी
सबब तो एक है
देखने का नज़रिया ग़लत है,
सोच को जंग लगा है
दिल के आईने पे धूल है
ज़हन खुश्क़ है
अहसास तो कीजिये,
भूले से कभी अंदर झांक लीजिये
कौन लड़ा रहा है दुनियां,
कौन तुम्हारा दुश्मन है ?
और एक बात अजीबो-ग़रीब
अलग होते हुए भी
अंदर की दुनियां की
बाहर की दुनियां से बात-चीत
मुसलसल करती रहती है
खुद ही पीड़ित और खुद ही जज
फैसले ले लेती है
ये हक़ किसने दिया
फैसले ले लेती है
ये हक़ किसने दिया
खून जलाने का ?
ये दो सगे भाई
बाहर की दुनियां और अंदर की दुनियां
दोनों ग़ुलाम, एक ही राह पर चल रहे हैं
लेकिन अंदर वाला ज़्यादा बुरा है
जो जोड़-तोड़ में मसरूफ़
मुझे उसपे गुस्सा भी आता है
फिर भी उसे पाल रहा हूँ
मेरा नुक्सान हो रहा है
बताओ मैं क्या करूँ ?
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