"अन्धेरे से उजाले तक"
रात बहोत बाकी दूर सहर तक चलना है,
अंधेरों से उजालों तक का सफर करना है
तमाम परेशानियाँ, उलझनें खड़ी राहों में,
ज़िन्दगी को हर क़दम फूँक के धरना है
काफिला तो चला वक़्त पे उस रोज़ भी,
हम ही तय न कर पाये रुकना या चलना है
तरंगे ले उड़ी फलक़ पे ख्यालों को जब भी,
पतंग कटे न सपनों की हमें संभलना है
अभी सर्द हवाओं ने उजाडे़ हैं बाग मेरे,
अव्वल तो ज़ख्मों को मुझे भरना है
खावाहिशों नें मेरी जानिब अपना रुख किया,
उनके बद इरादों को सिरे से बदलना है
सरहद की जंग छोटी जीस्त की बड़ी,
फौजी एक बार मरे हमें रोज़ ही मरना है
"रत्ती" हम तो मुसाफिर मज़िल से वाकिफ,
राह के ख़तरों से हमको नहीं डरना है
अच्छी गज़ल..
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता लिखी है
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