मृगतृष्णा
होड़ पड़ी धरा पर
समेट ले़ जग को
अपनें आँचल मे
हाथ तो निरन्तर लगे रहे
चौबीसों घण्टों कुछ पाने को
लक्ष्य को सामनें रख
लम्बी गलियों में चलते रहे
काश कि गगन को छू लेते
लालसा भी इतनी के
पानी से प्यास तो बुझे पर
ये मृगतृष्णा टस से मस नहीं होती
आखिरी साँस तक पीछा नहीं छोड़ती
ये मृगतृष्णा है, लालसा है, क्या है
शायद भ्रम हो गया है
एक ऐसी धुन्धली परछाई
जिसमे मानव भटक जाता है
सब भूल जाता है
बिखर जाता है .....
बहुत अच्छी लगी आपकी कविता मृगतृष्णा
ReplyDeleteये मृगतृष्णा टस से मस नहीं होती
ReplyDeleteआखिरी साँस तक पीछा नहीं छोड़ती
"very true, good poetry"