Tuesday, December 15, 2009

माहताब

माहताब
आज  चले  हैं वो फिर,  गुलशन को   मेहकानें,    
बहारों का इस्तक़बाल करो, और छेड़ो तराने


हम  उनकी अदाओं   को   देख,  दंग रह गये,
क्या नज़ारा  था,  नूर   था,  लगे मुँह छिपाने

हर कोई उसे अब,  माहताब   कहने लगा है,
बांध   लिया है  कशिश  में,  सब  हुए दिवाने


बारगाह   में  वीराने,   ज़ुल्मतों  में  जा छिपे,
तन्हाईयों को भी न मिले, ऐसे तन्हा ज़माने

अब शोर-ए-गिरयां   की,  बात  न   किया  करें,
शबे-खामोश में, दुनियाँ लगी है क़मर हिलाने


जहाँ रानाई बिछी हो, उसकी अदा हरी-भरी हो,
जैसे जन्नत चली आयी, "रत्ती" के होश उड़ानें

शब्दार्थ 
इस्तक़बाल = स्वागत, नूर = प्रकाश, माहताब = चाँद,
बारगाह = दरबार, ज़ुल्मत = अन्धेरा,
शोर-ए-गिरयां = रोने धोने का शोर, शब-ए-खामोश =  चुपरात,
रानाई = सुंदरता,