Monday, June 28, 2010

सियासतदाँ (राजनीतिज्ञ)

मित्रो एक रचना पेश कर रहा हूँ , इसमें  एक राजनीतिज्ञ क्या सोच रहा है
अपने देश और समाज के बारे में और उसका अपना स्वार्थ कैसे हल हो इसकी उसको चिंता है .....

सियासतदाँ (राजनीतिज्ञ) 

एक आसां नया हुनर सीखना चाहता हूँ,
सारे जग को पल में ख़रीदना चाहता हूँ


ये   सियासत क्या है एक खेल के सिवा,
जो  दांव खेला  है  वो जीतना  चाहता हूँ


ना जुर्म कबूल है न  क़ानून  पर चलूँगा,
क़ानून   को  पैरों   तले  रौंदना  चाहता हूँ


फिक्र क्या है, दर्द क्या है अपनी बला से,
अपनी  ज़िंदगी ठाठ   से जीना चाहता हूँ


कोई फरियादी,  मज़लूम  भीड़  पसंद नहीं,
पाँच साल में एक बार मिलना चाहता हूँ


झूठ,   फरेब,   दिलासे   ये  हथियार हमारे,
इनके शिकंजे में सबको भीचना चाहता हूँ


दौलत,  सत्ता,  एशो - आराम  बहोत  प्यारे, 
''रत्ती''  इनको   मैं  नहीं  खोना  चाहता हूँ

Friday, June 18, 2010

मौज-दर-मौज

मौज-दर-मौज

इस वक्त की तल्खीयों का
बोझ सबके शानों पर है
ऐसे लम्हात में इम्तहाँ से 
रोज रू-ब-रू होना पडता है
दरीचे दिल के जो, खोलोगे तो पाओगे
छोटे-छोटे रोज़न नहीं इसमें
बड़े-बड़े दर हैं
यहाँ से तो दर्दों के काफ़िले गुज़र सकते हैं 
इस मंज़र की पैकर 
लोगों के ज़हन में ऐसी उतरी है
बाक़ी बची ज़िंदगी में ख़ौफ के साये 
हमारे पीछे दौड़ेंगे
जैसे गली के कुत्ते
अजनबीयों पर टूट पड़ते हैं 
डरा-डरा सहमा हुआ आदमी
अपने जिस्मो-जां को
किसी तरह संभालता है
ये हर रोज़ की हिकारत 
ख़ुद-ब-ख़ुद पेश आती रहती है
मौज-दर-मौज सबके सामने .....