Saturday, July 31, 2010

संगदिल

संगदिल

संगदिल   बहोत   हैं  रहम   दिलवाले    नहीं  होते,
किसने देखा गोरे तन में मन काले नहीं होते।


चराग़    शहरों   में    चौबीसों    घन्टे   जलते    हैं,
पर   दिन  में   पहले    जैसे   उजाले   नहीं    होते।


मेरे   देश  में   ग़रीब  आज    भी   भूखे  ही सोते,
दो   वक़्त   पेट   भर  खायें    निवाले   नहीं   होते।


रावणराज  का   डंका   बाजे   भारत  में   ''रत्ती''
कुवैत   में    रामराज    वहाँ    ताले   नहीं    होते।


शब्दार्थ
संगदिल = पत्थर दिल

Tuesday, July 6, 2010

आर्थिक हिंसा

आर्थिक हिंसा

आज की इस दौड़ती जिन्दगी में हिंसा की गति बिजली की गति से भी आगे निकल गयी है। आर्थिक हिंसा के रूप गिनाने लगें तो एक पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। समाज में चहुँ ओर जो हो रहा है दिख रहा है। वह सब बनावटी, मिलावटी और तन, मन, धन सब पर भारी पड रहा है। एक आर्थिक अघोषित युध्द ही है जिसके हम शिकार हो रहे हैं। हर आदमी अपनी स्वार्थ सिध्दी के लिये ज़्यादा मुनाफे के लिये तिकड़में लगा कर लूट रहा है। रातों-रात बिलगेट बनने की तैय्यारी कर रहा है। इस आर्थिक हिंसा के बीज दिनों-दिन मच्छरों की भांति पनप रहे हैं, अपने ही देशवासियों का खून चूस रहे हैं। हमारे संस्कार, सभ्यता और आदर्शों की परिधि सिमट कर रह गयी है।


आईये आर्थिक हिंसा के कुछ चेहरों से आपका परिचय करायें। ये भी सही है इन्हें आपने देखा है, भलिभांति जानते हैं फिर भी आपको इनके निकट दर्शन कराना चाहता हूँ।


सबसे पहले दहेज की प्रथा है, वह चरम पर है। इसमें दो परिवारों के बीच रिश्ते की बुनियाद सिर्फ रूपये-पैसे पर टिकी है, रूपये मांगे और दिये जाते हैं जैसे हम बाज़ार से कोई वस्तू खरीद रहे हैं। हमारे रीति-रिवाज व्यवसायिक रूप ले चुके हैं अतः हम ये कह सकते है शादी के बहाने हम हिंसा कर रहे हैं।


हमारे विद्या मंदिरों, स्कूल, कॉलेजों का व्यवसायिक करण धडल्ले से हो रहा है। बच्चों के दाखिले के समय लाखों रूपये डोनेशन की मांग और उसकी कोई रसीद नहीं दी जाती। तिस पर अभिभावकों को यह कहा जाता है कि आपको यूनिफार्म, पुस्तकें, किताबें स्कूल से ही खरीदने पड़ेंगे । एक मोनोपॉली बना दी गयी है। अभिभावकों को मजबूरन अपने बच्चों के भविष्य की खातिर न चाहते हुए भी डोनेशन देना पडता है। ये अनचाहा आर्थिक नुकसान ही है, हिंसा ही है, इस पर लगाना ज़रूरी है।


हमारे शिक्षकों को ही देखें दिनभर स्कूल में विद्या बांटने का दम भरते हैं और साथ-साथ अभिभावकों को बुला कर बच्चों की कमजोरियां बता कर ट्‌यूशन लगवाने की बात करते हैं। अब प्रश्न ये उठता है फिर वे क्लास में क्या पढ़ाते हैं ? ट्‌यूशन में ऐसा क्या घोल पिलाया जाता है बच्चों को, ट्‌यूशन का अतिरिक्त बोझ एक नया हिंसा का चेहरा दिखा रहा है।


पूरे भारत में पुलिस के कामकाज पर दृष्टि डालें तो बदनामी और रूपये बटोरने के अलावा कुछ नहीं। पीड़ित व्यक्ति को रिपोर्ट लिखाने के समय उनकी मुट्‌ठी गरम करनी पडती है। ये अनावश्यक आर्थिक नुकसान आर्थिक हिंसा के दर्शन कराता है।


सरकारी कार्यालयों के कर्मचारियों की हालत भी ठीक नहीं, वो न समय पर आते हैं और घर जल्दी लौट जाते हैं। रिश्वत लिये बिना कोई काम नहीं करते। जनता को इनकी मांग पूरी करनी पडती है। ये आर्थिक तोटा भी हिंसा की दायरे में है।


हमारी सरकार के चुने हुए प्रतिनिधि चुनाव में दिये वादे के उलट ही हर काम करते हैं। महंगाई को बढाने का श्रेय इनको ही जाता है। जनता जनार्दन की जेब पर जो आर्थिक भार बढ गया है। घर- संसार चलाना बहुत मुश्किल हो गया है। पेट्रोल, डीज़ल से लेकर हर आवश्यक खाने-पीने की चीज का दाम बढ़ाना सरकार की हिंसात्मक कार्यवाही ही है। लोगों को आर्थिक मार पड रही है, ये भी आर्थिक हिंसा का ही रूप है।


ठेले पर सब्जियां, फल और अन्य सामान बेचनेवाले कम तौल कर लोगों को चूना लगा रहे हैं। एक किलो सामान में कभी सौ तो कभी दो सौ ग्राम सामान कम ही आपकी झोली में आता है। ठेलेवाले तराजू का पलडा अपनी मर्जी से झूका देते हैं। ये चोरी भी आर्थिक हिंसा के अंतरगत आती है।


ऑटो-टैक्सीवाले बदनाम है सारे भारत में, ज़्यादा किराया वसूलते हैं यात्रियों से, ये नुकसान हमारा आर्थिक हिंसा ही है।


दूध, तेल, दालें, अनाज, मसाले कोई भी खाने की वस्तु शुद्ध नहीं मिलती उदाहरण के तौर पर दूध में पानी, देसी घी में उबले हुए आलु, आटे में मैदा, तेलों में भी मिलावट केमिकल का प्रयोग होता है। जिसका सीधा असर हमारे स्वास्थय पर पडता है, मजबूरन डॉक्टर्स की शरण में जाना पडता है। ये भी आर्थिक हिंसा हो रही है ग्राहकों पर।


कुछ प्रायवेट नर्सींग होम में डॉक्टर्स द्वारा जबरन सिज़रींग करके बच्चे को बाहर निकलते है। इस ऑपरेशन में माँ को कितनी तकलीफ दर्द होता है ये तो वही जाने, मरीज़ पूरी तरह से डॉक्टर की दया पर जी रहे हैं। पैसा कमाने ये अनोखा तरीका है। ये आर्थिक हिंसा के साथ-साथ हिंसा भी है।


वकीलों और हमारी न्यायपालिका के कामकाज से आम जनता अनभिज्ञ है। आपको महंगी फीस चुकानी पडती है, सलों-साल लग जाते हैं। न्याय मिलेगा के नहीं, इसकी अनिश्चितता बनी रहती है नतीजा पैसे और समय की बर्बादी ये आर्थिक नुकसान भी हिंसा का चेहरा दिखा रहा है।


सडक बननेवाले ठेकेदार, बिल्डर्स सीमेंट, रेत, लोहा निम्न स्तर का प्रयोग करते हैं। अपने आर्थिक लाभ हेतु कच्ची सडकें और मकान बना रहे हैं। ये भी हिंसा कर रहे हैं।


ज्वेलर्स भी अछूते नहीं लूटने में एक गेहने में कितने टांके लगे हैं, कितनी खोट है उस ज़ेवर में उसका वज़न भी सोने के मूल्य बराबर लेते हैं ग्राहक को इन सब बातों के बारे में नहीं पता, जिसका फायदा ये ज्वेलर्स उठा रहे हैं आर्थिक हिंसा करने में ये भी पीछे नहीं।


पेट्रोल और डीज़ल पम्प के मालिक भी पेट्रोल और डीज़ल में मिट्‌टी का तेल मिला कर वाहन चालकों के साथ धोखा कर रहे हैं। ये भी हिंसा का ही एक रूप है।


केमिस्ट की दुकान पर मिलने वाली ब्राण्डेड दवाईयों की नकली दवाईयां मिलती है। इन नकली दवाईयों में मुनाफा ज़्यादा मिलता है उनको, ये भी हिंसा ही कर रहे हैं।


राशन की दुकानों पर मिलने वाला अनाज निम्न स्तर का होता है मिलावटी, कंकड, पत्थर मिला हुआ । स्वच्छ अनाज की आप मात्र कोरी कल्पना कर सकते हैं। इसे भी हिंसा कह सकते हैं।


बैंकों के कामकाज पर आश्चर्य होता है, ग्राहक को पता ही नहीं चलता कब उसके होम लोन की ब्याज दर की वृद्धि हो गयी है कर्ज़ का बोझ ज्यों का त्यों पड़ा रहता है बैंक भी एक तरह से हिंसा कर रहे हैं


मित्रो आर्थिक हिंसा में भले ही खून-खराबा न दिखता हो लेकिन आर्थिक नुकसान हर परिवार पर चोट कर रहा है, विकास में रोडे अटका रहा है। इसके लिये हम ही जिम्मेवार हैं, पीडित हैं, हमारी सरकार भी संसद में बयान देने के सिवाय कुछ नहीं करती। कड़े क़ानून सिर्फ़ क़ानून की किताबों में ही पढनें को मिलते हैं और अगर अपराधी को सज़ा मिलती भी है तो वो भी न के बराबर, सबके हौसले बुलन्द हैं। रिश्वत और मुनाफे का एक बड़ा वृक्ष हमारे भीतर फैल गया है इसकी जडें बहुत गहरी धस गयी हैं। इनको काटना कठीन हो रहा है। गलत तरीके से रूपये कमाने वाला दानव हमारे अंदर पल रहा है इसे हमें ही खदेडना होगा। क्या ये संभव है ?