Wednesday, March 30, 2016

आरज़ू कहाँ जाये

आरज़ू कहाँ जाये


आरज़ू बन-ठन के निकली घर से                 
ठंडी हवाओं के लम्स ने
मदहोश किया 
कारवां रुकवा दिया 
रात रंगीनियों में जवां 
बिखरी हुई 
सुब्ह को मिलेंगे गर्म 
उबलते ताने-बने 
दिल झकझोरते अफ़साने 
उस चौराहे पे अंजान 
कड़कड़ाती धूप तले 
तलवे जलते रहे 
तपिश जिस्म में फैल गयी 
निढाल ज़िन्दगी तकती रह गयी 
जहाँ दिलासा भी गुमशुदा हो 
तो "रत्ती" आरज़ू कहाँ जाये .......

Friday, March 4, 2016

नासमझ


नासमझ             


कहने को मासूम हैं पत्थर फेंकते हैं ।  
अपनी ही नज़र से जहाँ को देखते हैं ।। 

अभी-अभी सुबह का आग़ाज़ हुआ है, 
आते ही नुक्ताचीनी नज़रें तरेरते हैं । 

जो भी काफिला चला शामिल हो लिये,
नासमझ मुल्क की धज्जियां उधेड़ते हैं।  

माजरा क्या, अफ़साना क्या मालूम नहीं, 
लोगों के जज़्बातों से रोज़ खेलते है।

हर शै के सौदागरों की कतार है लम्बी,
इज़्ज़त, शौहरत, मज़हब, इमां बेचते हैं।

सियासी जमातों के मतलब सब टेढ़े,
मौका मिलते ही रोटियां सेकते हैं। 

जवानों की क़ुर्बानियों का मान रखते, 
जो अपने सीने पे गोलियां झेलते हैं। 

अब तो खौफ़ के भी पर कुतर डाले,
हम बेबस "रत्ती" आस्मां को देखते हैं।


Tuesday, March 1, 2016

जलते नारे

जलते नारे 


अपना ही घर उजाड़ दिया, सरफिरे आवारों ने,
आग लगा दी चार-सू, गलियों में चौबारों में । 

किसी के घर का चराग़ बुझा, किसी के सर ज़ख्म लगा, 
अब के बहुत आग देखी, आरक्षण के जलते नारों में । 

आतंकी सारे घर में थे, लूटपाट के सफर में थे, 
आगजनी-राख पसरी थी, तड़पती लाशें अंगारों में । 

दुकानें, स्कूल बने शमशान, स्वाह हुआ सारा सामान,
हैवानों की अकल जानवरों सी, नाम गुनहगारों में ।   

तुमने ग़रीबी के बीज बोये, आनेवाली नस्लें पाप ढोयें, 
भीख मंगाते एकदिन "रत्ती", नज़र आओगे कतारों में ।