Thursday, February 26, 2015

गीत न. ३

गीत न. ३
लहरों के सीने पे वो कुछ लिख आया
धुंधला था संदेसा कोई समझ न पाया
आहों की गली से सांसें गुज़रती हैं
हौले-हौले कदम आगे धरती हैं
अपने घर में जैसे कोई हो पराया
इन सुर्ख नज़रों से लहू न सूखे
पल हंसी के चुराये सपने भी लूटे
जी भर के कोसा और खूब रुलाया
अब गर्दिश में तारों की बदसुलूकी
बची थी जो इक आस वो भी टूटी
"रत्ती" खौफ-ज़दा रूह को तड़पाया

Wednesday, February 11, 2015

जीने की आदत

जीने की आदत
बिन पिये ही जीने की आदत बना ले
अपने रूठे-टूटे दिल को तू मना ले
मरकज़ मन्ज़िल का देख दिन-रात
उस बिखरी हुई सोच को जमा ले
 
ये ज़िन्दगी कश के सिवा कुछ और भी है
अगर उड़ाना है तो अपने ग़मों को उड़ा ले
 
उनको बर्बादियों के ताने-बाने बुनने दे
तू संगदिलों में अपनी जगह बना ले
 
बेशक हर बात का कुछ तो सबब होता है
जैसे हालात हों उनको वैसा सजा ले
 
 
कोई रात अंधेरों को मिटा नहीं सकती
पुकार सुबह के उजालों को बुला ले
 
पल-पल की खबर धड़कनों को बढ़ाये
उखड़ी हुई साँसों को गले लगा ले
 
कोई मुतमइन नज़र न आया जहाँ में
कोशिश से "रत्ती" मसलों पे निजात पा ले
 
शब्दार्थ
मरकज़ = केंद्र, संगदिल = पत्थर दिल,
सबब = कारण, मुतमइन = संतुष्ट