Wednesday, December 5, 2018

"क्या तूने क़दम बढ़ाया"



मित्रो आज काफी दिनों बाद एक रचना लेकर आया हूँ, उम्मीद है आपको पसंद आयेगी।   


"क्या तूने क़दम बढ़ाया"


तेरे चेहरे ने मायूसी-ओ-ग़म का हाल बताया।
दर्द जो दिल में छुपा था, उससे पर्दा न हटाया। 


ये ज़िन्दगी क्या बोझ, ढोने के लिये बनी है,
तिल-तिल मर के, सुंदर मन को जलाया।   


मोतबरों से बयां करके, कुछ हल्के हो जाते, 
ये मुतमईन सबक, किसीने नहीं सिखाया। 


ये नज़ारे, ताबूत-ओ-क़फ़न, ज़मीं  पे रह जाते हैं,
फिर किसलिये भाई, हर राज़ तूने छिपाया। 


अपनी कब्र खुद खोदते, उनको पता ही नहीं,
रब जहाँ बसे दिल में, उसे नरक बनाया।    


ज़ालिम दुनियाँ को छोड़ो, दरकिनार ही कर दो, 
खामखा, बिलावजह, सरदर्द है बढ़ाया। 


कौन तेरे वास्ते "रत्ती", कितना भला सोचे,
तू बाज़ी जीत सकता है, क्या तूने क़दम बढ़ाया।  

 

Sunday, September 2, 2018

चार लाईने - १



चार लाईने - १  

दुआयें  काम नहीं करतीं, अगर दिल साफ़ नहीं होता 
अपने आप गुनाह किसीका, कभी माफ़ नहीं होता 
सलाखों के पीछे भी कभी, कुछ दिन गुज़ारने होंगे  
जैसा तू चाहे "रत्ती" वैसे तो इन्साफ नहीं होता 

दर्पण के पन्नों से 


"सिक्सर"

"सिक्सर"



एक ही सिक्सर काफी है 
ज़िन्दगी बनाने के लिये 
तैयार रहो मौका मिलेगा 
तुम्हें आज़माने के लिये 

मौके रोज़ ही आते हैं 
झांको ज़रा उनमें तुम 
कोई दूसरा न आयेगा 
तुमको बताने के लिये 

वक़्त की मार काम की 
सिखलाती हरेक को 
सीखनेवाले में खोट है 
कोशिश नहीं कुछ पाने के लिये 
 
खुदा करम तो करेगा 
अपने क़दमों को चला 
"रत्ती" बाँधी तूने ज़ंजीरें 
पैर न उठाने के लिये 

दर्पण के पन्नों से  





संभल जाओ.....

"संभल जाओ"

घर के भीतर के अनोखे दृश्य
भयावह, प्रचंड अग्नि के कुण्ड
उसमें जलती खुशियाँ
शब्द बाणों से घायल तन और मन
ऐसे में शांति की बातें भला कैसे करेंगे ?
पीड़ा रोम-रोम में, नख से शिख तक
न कारण जानने की जिज्ञासा
न उपाय के प्रयास
के हम पीड़ित, दुखी क्यों हैं ?
"कान के कच्चे, न अपने घर के पक्के
न बात हज़म करने की शक्ति"
अक़्ल पर पड़े पर्दे
और गर्व की सीढ़ी पे चढ़ कर
गगन पर विराजमान
महाशय, टक-टकी लगाये निहारते
नोंक-झोंक की प्रतीक्षा में रहते
इर्द-गिर्द मंडराते स्वार्थी रिश्ते तो
गृह युद्ध ही करायेंगे ?
आकाश को धरती पर खींच लायेंगे
"घर की बुनियाद टूटेगी, घड़े का पानी सूखेगा" 
इसके सिवा क्या होगा ?
और रही-सही कसर सास-बहू के सीरियलों ने पूरी दी 
अग्नि में घी तो ज्वाला तेज़
ज़हन में तैरतीं वही बातें 
आप इसमें से बच के साफ़-सुथरे नहीं निकल सकते
भविष्य के अच्छे-बुरे फल
अभी आपने तय कर लिये हैं
भोगना पड़ेगा, कुदरत का क़ानून है 
सुख की चंद गिनी-चुनी घड़ियाँ
और दुख सदा आपका संगी-साथी रहेगा 
स्वयं को टटोलो, सोचो, न्याय तुम्हीं करो 
दूसरे भस्म कर देंगे
बाहें जोड़ो, कंधे मिलाओ
"रत्ती" समय है संभल जाओ.....

दर्पण के पन्नों  से


"ये वक़्त"

हरपल सवालों में हमें उलझता है
ये वक़्त रोज़ सबको खूब नाचता है
क्या राहें  आसां  न होंगी कभी,
ग़मों का कारवाँ आगे बढ़ जाता है

रहने भी दो ऐसी दिलासों की बातें
दिल टूटे हैं क्या करेंगी मुलाक़ातें 
कोई दुखी को नहीं गले लगता है

अपनी-अपनी सोच से सब दूर हो गये
कुछ उनके कुछ मेरे सपने चूर हो गये
क्या ऐसे में मन को को भाता है

क्यों ख़ाक पे बैठी हीरे सी ज़िन्दगी
क्यों फैली बदबू ज़हन में गंदगी
"रत्ती" कोई प्यार के जुमले नहीं सुनाता है

हरपल सवालों में हमें उलझता है
ये वक़्त रोज़ सबको खूब नाचता है
क्या राहें  आसां  न होंगी कभी,
ग़मों का कारवाँ  आगे बढ़  जाता है

दर्पण के पन्नों  से

  

Saturday, April 28, 2018

मित्रों, आज बहुत दिनों बाद आपके साथ कुछ साँझा करने मन हुआ, सन  २०१८ की ये मेरी पहली रचना है। 

"दीवार बन गया"

जीने का मज़ा रफ़्ता-रफ़्ता, आज़ार बन गया। 
जो पास था मेरे लम्हा, पल में ख़ार बन गया।।

ख़लाओं में गूंजती रही, तन्हाईयों  की सदा,
उजालों का मुक़्क़दर, अंधकार बन गया। 

चली आयी इक मुस्कान, आँखों में आंसू लिए,
हर वक़्त दौड़नेवाला शख़्स, लाचार बन गया। 

कश्मक़श के टोले, सोच की राहों में खड़े थे,
वो मुंसिफ था जाने कैसे, रियाकार बन गया।  

दुआओं को खरीदने लगा है, मंदिरों-मस्जिदों में,
इबादत का अनोखा सिलसिला, कारोबार बन गया।  

देनेवाले ने दी सारी नेमतें, सुब्ह होने से पहले,
माँगते-माँगते सारा जहाँ, रब का परस्तार हो गया।  

मैली-कुचैली हरकतें, हवा में तैरते गन्दे इशारे,
नापाक मन ज़हरीले बोलों का, आबशार बन गया।  

फिर सुबह गुनाह करने की, फेहरिस्त बना ली "रत्ती",
इंसां-इंसां  की तरक़्क़ी में, इक दीवार बन गया।