Saturday, December 18, 2010

मन

मन


इक पल  यहाँ   दूजे   पल वहां  भागता   है ये  मन,
इसकी गति को  पकड़ने में  लग जाते  कई  जनम 


कोशिशें   लाखों    करनी   पड़ती   हैं   हम   सबको,
मानव  हार   चुका   है    हो    रहा   हमारा   पतन


हम   ही   को इसके  गले  में  डालना  होगा   फंदा,
जिद्द  करो  बंधो  इसे  या  खाओ  कोई  तुम क़सम


गुलामी   करती   है   रोज़   सारी  दुनियाँ   इसकी,
कहने को   ये  दोस्त,  हक़ीक़त है ये हमारा दुश्मन 


मदारी  ने  बन्दर  को   काबू  में   रखा  रस्सी  से,
"रत्ती" तुम  भी  करो  ऐसा  पक्का  मज़बूत जतन 

Saturday, November 6, 2010

"दीपावली"

"दीपावली"


आओ सखियों सब मिल के रंगोली बनाओ री,
अयोध्या नगरी को दुल्हन की तरह सजाओ  री

रामचन्द्र के आगमन पर कोई त्रुटी न रहे,
सुगन्धित पुष्पों की माला उनको पहनाओ री

हर गली को रंग-बिरंगे फूलों से सजाना,
रामचंद्र जब चले यहाँ से पुष्प उन पर बरसाओ री

मिष्ठान, पकवान हर तरह के ध्यान से बनाना,
छप्पन भोग, स्वादिष्ट भोजन का भोग लगाओ री

तन-मन-धन से पूजा, अर्चना का ही हो लक्ष्य,
भजन, मंगल आरती, प्रेम सहित गाओ री

राम प्रसन्न तो सब प्रसन्न, तैतीस करोड़ देवी-देव,
रामपद पूजा में मन को निरंतर लगाओ री

लक्ष्मी जी भी प्रसन्न होती राम के गुणगान से,
चिंतन के दीप अंतर्मन में सदा जलाओ री

जय- जयकार करो उत्साह से, बहुत प्यार से,
ह्रदय से पुकारो राम जी को और रिझाओ री

दीप जलाओ भक्ति के, आस्था और श्रद्धा भरे,
इस नियम को पक्का कर जीवन सफल बनाओ री

Monday, November 1, 2010

शोला रू

शोला रू


फरिश्ते  भी  खुल्द  से  ज़मीं   पर नहीं आते,
भूल के  भी  अपना  पता  नहीं  हमें   बताते

बहरे  जहाँ   बरहम  शोला रू    नज़र  आया,
ऐसी  रवायत  है  यहाँ   अश्कों   को   सजाते

लोग  किसी को  दिल  के   क़रीब  नहीं  लाते,
और    राज़   अपना     कभी     नहीं    बताते

फर्द     बेसाख़्ता     सरसीमगी   को    पालता,
लज़्ज़तफशां   खु़बसूरत   चीज़ों   को   ठुकराते

जाबजा     गुनाहगार     को     आज़ादी     है,
गुनाह   किसी  का   देख   के   नहीं   समझाते

ज़रा सी  भी शफ़क़त  नहीं किसी के  दिल में,
रंज - ओ - मेहन   को   ही   चार  सू  फैलाते

इन्सां  कारदां  है   मगर   गुमां   करता    हैं,
मासूम     फरर्माबरदार     को    बहुत   डराते

तंग-नज़र,   पासदारी   की  बुनियाद पर बैठे,
पसोपेश   में   ख़ुद  को  नहीं लोगों को फसाते

आसेब    हैं    यहाँ     सारे    के   सारे  “रत्ती“,
एक   सदाक़त   को   सात  पर्दों    में  छिपाते

शब्दार्थ 
खुल्द = स्वर्ग, बहरे जहाँ = विश्व सागर, बरहम = नाराज़,
शोला रू = आग जैसे चेहरे, फर्द = आदमी, बेसाख़्ता = अनायास,
सरसीमगी = परेशानी,  लज़्ज़तफशां = मज़ा देने वाली, जाबजा = जगह-जगह
शफ़क़त = स्नेह, रंज-ओ-मेहन = दुख-दर्द, चार सू = चारों तरफ,
कारदां = अनुभवी, गुमां = शक, संशय, फरर्माबरदार = सेवा करनेवाला,
तंग-नज़र = संकीर्ण विचार, पासदारी = पक्षपात, आसेब = भूतप्रेत, सदाक़त = सच्चाई

Friday, October 22, 2010

रू-ब-रू

रू-ब-रू



ज़िन्दगी   महोबत के रू-ब-रू हो गयी,
फिर दोनों  में  इक जंग शुरू हो गयी


अहवाल  बला-ए-इश्क के  नागवार हैं,
न जाने  चर्चा  कैसे कू-ब-कू  हो गयी


वो  जब   नुमाया न  हुई  तो  बेक़रारी,
वस्ले-यार   के  लिये जुस्तजू  हो  गयी


लब-ए-इज़हार की  हरारत कम न थी,
आँखों-ही-आँखों  में  गुफ्तगू  हो  गयी


दोनों  जां हथेली पे लिये निकले “रत्ती“
मर मिटने की होड़ अब आरज़ू हो गयी


शब्दार्थ 
रू-ब-रू = आमने-सामने, अहवाल - विवरण
बला-ए-इश्क = प्रेम का दुख, नागवार = अप्रिय
कू-ब-कू = गली-गली,  नुमाया = प्रकट, वस्ले-यार = प्रियतम से मिलन
जुस्तजू - तलाश, लब-ए-इज़हार = मुंह से कहना, हरारत = उत्साह

Tuesday, October 5, 2010

वो एक है

वो एक है


उसने कहा ख़ुदा मेरा है
तुम्हारा नहीं
मैंने कहा भगवान मेरा है
तुम्हारा नहीं
राम-रहीम को बांट सको तो
बांट लो
वो पतितपावन एक है, एक है, एक है
गद्‌हों को अक्ल होती नहीं
इसमें कुसूर तुम्हारा नहीं

Wednesday, September 15, 2010

बदहाल

बदहाल


ग़मे  हिज्र   की  सूरते   हाल  न   पूछ,
हुआ दिल को कितना मलाल न पूछ

शब   भर  वहाँ  बसी थी  खामोशियाँ,
सहर  हुई  मचा   नया बवाल  न पूछ

आज़ाद   लोगों  के   वास्ते    रोज़  ही,
बुना   बेबसी  ने   एक   जाल  न  पूछ

तू  एक  गुलाम   है   चुप   ही    रहना,
सर  झुका  कर काम   सवाल न पूछ

बिना  खता  के भी  तुझे   सज़ा   देंगे,
तेरे जिस्म पे  न  होंगे  बाल  न   पूछ

सर्द  आहों  में  सुलगे  हैं  जो   अरमां,
दिल  की  तरंगों  का  उबाल  न   पूछ

इब्तिदा   और   इंतिहा   में   फसा  है,
''रत्ती''  दीदा-ए-तर  बदहाल  न  पूछ 

Wednesday, September 8, 2010

ख़ुद को बचाया जाये

ख़ुद को बचाया जाये


चलो आसमां को ज़मीं पे लाया जाये,
चांद-तारों से दिल को बहलाया जाये

रातों की ज़ुल्मतों  में ग़मों को ढून्ढें,
दिन के उजाले में दर्द पाला जाये

कांटों की डोली में बैठ के फिर सोचो,
कैसे ज़ख्मों को ज़्यादा उभारा जाये

लहरों के सीने, जिस्म पे नाचते खेलते,
उनके सोये तुफानों को जगाया जाये

सूरज की गर्मी और उठती लपटें पी के,
पेट की बढती आग को मिटाया जाये

इंसां तो जनम से लापरवाही का हबीब,
उसे सलीके से ही सब सिखाया जाये

''रत्ती'' ये सब मुमकीन नहीं होता कभी,
सदा खतरों से खुद को बचाया जाये

Thursday, August 19, 2010

कामनवेल्थ गेम्स

कामनवेल्थ गेम्स

सब   दे   रहे  हैं  सरकार  को ब्लेम,
भ्रष्टाचार  में लिप्त कामनवेल्थ गेम


कलमाड़ी  का  नाम  है सबसे   उपर,
खूब रौशन  किया है भारत   का नेम


बची इज़्ज़त  को  कर  रहे  तार-तार,
सारा विश्व कह रहा है शेम  शेम शेम


रोज़ी - रोटी   ज़रूरी  है  खेल   नहीं,
क्यों  कर  रहे  देश   को बदनाम लेम


खेलों   से   जनता  को   क्या   फायदा,
''रत्ती''  धोखा  नेताओं   का  देश प्रेम

Saturday, July 31, 2010

संगदिल

संगदिल

संगदिल   बहोत   हैं  रहम   दिलवाले    नहीं  होते,
किसने देखा गोरे तन में मन काले नहीं होते।


चराग़    शहरों   में    चौबीसों    घन्टे   जलते    हैं,
पर   दिन  में   पहले    जैसे   उजाले   नहीं    होते।


मेरे   देश  में   ग़रीब  आज    भी   भूखे  ही सोते,
दो   वक़्त   पेट   भर  खायें    निवाले   नहीं   होते।


रावणराज  का   डंका   बाजे   भारत  में   ''रत्ती''
कुवैत   में    रामराज    वहाँ    ताले   नहीं    होते।


शब्दार्थ
संगदिल = पत्थर दिल

Tuesday, July 6, 2010

आर्थिक हिंसा

आर्थिक हिंसा

आज की इस दौड़ती जिन्दगी में हिंसा की गति बिजली की गति से भी आगे निकल गयी है। आर्थिक हिंसा के रूप गिनाने लगें तो एक पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। समाज में चहुँ ओर जो हो रहा है दिख रहा है। वह सब बनावटी, मिलावटी और तन, मन, धन सब पर भारी पड रहा है। एक आर्थिक अघोषित युध्द ही है जिसके हम शिकार हो रहे हैं। हर आदमी अपनी स्वार्थ सिध्दी के लिये ज़्यादा मुनाफे के लिये तिकड़में लगा कर लूट रहा है। रातों-रात बिलगेट बनने की तैय्यारी कर रहा है। इस आर्थिक हिंसा के बीज दिनों-दिन मच्छरों की भांति पनप रहे हैं, अपने ही देशवासियों का खून चूस रहे हैं। हमारे संस्कार, सभ्यता और आदर्शों की परिधि सिमट कर रह गयी है।


आईये आर्थिक हिंसा के कुछ चेहरों से आपका परिचय करायें। ये भी सही है इन्हें आपने देखा है, भलिभांति जानते हैं फिर भी आपको इनके निकट दर्शन कराना चाहता हूँ।


सबसे पहले दहेज की प्रथा है, वह चरम पर है। इसमें दो परिवारों के बीच रिश्ते की बुनियाद सिर्फ रूपये-पैसे पर टिकी है, रूपये मांगे और दिये जाते हैं जैसे हम बाज़ार से कोई वस्तू खरीद रहे हैं। हमारे रीति-रिवाज व्यवसायिक रूप ले चुके हैं अतः हम ये कह सकते है शादी के बहाने हम हिंसा कर रहे हैं।


हमारे विद्या मंदिरों, स्कूल, कॉलेजों का व्यवसायिक करण धडल्ले से हो रहा है। बच्चों के दाखिले के समय लाखों रूपये डोनेशन की मांग और उसकी कोई रसीद नहीं दी जाती। तिस पर अभिभावकों को यह कहा जाता है कि आपको यूनिफार्म, पुस्तकें, किताबें स्कूल से ही खरीदने पड़ेंगे । एक मोनोपॉली बना दी गयी है। अभिभावकों को मजबूरन अपने बच्चों के भविष्य की खातिर न चाहते हुए भी डोनेशन देना पडता है। ये अनचाहा आर्थिक नुकसान ही है, हिंसा ही है, इस पर लगाना ज़रूरी है।


हमारे शिक्षकों को ही देखें दिनभर स्कूल में विद्या बांटने का दम भरते हैं और साथ-साथ अभिभावकों को बुला कर बच्चों की कमजोरियां बता कर ट्‌यूशन लगवाने की बात करते हैं। अब प्रश्न ये उठता है फिर वे क्लास में क्या पढ़ाते हैं ? ट्‌यूशन में ऐसा क्या घोल पिलाया जाता है बच्चों को, ट्‌यूशन का अतिरिक्त बोझ एक नया हिंसा का चेहरा दिखा रहा है।


पूरे भारत में पुलिस के कामकाज पर दृष्टि डालें तो बदनामी और रूपये बटोरने के अलावा कुछ नहीं। पीड़ित व्यक्ति को रिपोर्ट लिखाने के समय उनकी मुट्‌ठी गरम करनी पडती है। ये अनावश्यक आर्थिक नुकसान आर्थिक हिंसा के दर्शन कराता है।


सरकारी कार्यालयों के कर्मचारियों की हालत भी ठीक नहीं, वो न समय पर आते हैं और घर जल्दी लौट जाते हैं। रिश्वत लिये बिना कोई काम नहीं करते। जनता को इनकी मांग पूरी करनी पडती है। ये आर्थिक तोटा भी हिंसा की दायरे में है।


हमारी सरकार के चुने हुए प्रतिनिधि चुनाव में दिये वादे के उलट ही हर काम करते हैं। महंगाई को बढाने का श्रेय इनको ही जाता है। जनता जनार्दन की जेब पर जो आर्थिक भार बढ गया है। घर- संसार चलाना बहुत मुश्किल हो गया है। पेट्रोल, डीज़ल से लेकर हर आवश्यक खाने-पीने की चीज का दाम बढ़ाना सरकार की हिंसात्मक कार्यवाही ही है। लोगों को आर्थिक मार पड रही है, ये भी आर्थिक हिंसा का ही रूप है।


ठेले पर सब्जियां, फल और अन्य सामान बेचनेवाले कम तौल कर लोगों को चूना लगा रहे हैं। एक किलो सामान में कभी सौ तो कभी दो सौ ग्राम सामान कम ही आपकी झोली में आता है। ठेलेवाले तराजू का पलडा अपनी मर्जी से झूका देते हैं। ये चोरी भी आर्थिक हिंसा के अंतरगत आती है।


ऑटो-टैक्सीवाले बदनाम है सारे भारत में, ज़्यादा किराया वसूलते हैं यात्रियों से, ये नुकसान हमारा आर्थिक हिंसा ही है।


दूध, तेल, दालें, अनाज, मसाले कोई भी खाने की वस्तु शुद्ध नहीं मिलती उदाहरण के तौर पर दूध में पानी, देसी घी में उबले हुए आलु, आटे में मैदा, तेलों में भी मिलावट केमिकल का प्रयोग होता है। जिसका सीधा असर हमारे स्वास्थय पर पडता है, मजबूरन डॉक्टर्स की शरण में जाना पडता है। ये भी आर्थिक हिंसा हो रही है ग्राहकों पर।


कुछ प्रायवेट नर्सींग होम में डॉक्टर्स द्वारा जबरन सिज़रींग करके बच्चे को बाहर निकलते है। इस ऑपरेशन में माँ को कितनी तकलीफ दर्द होता है ये तो वही जाने, मरीज़ पूरी तरह से डॉक्टर की दया पर जी रहे हैं। पैसा कमाने ये अनोखा तरीका है। ये आर्थिक हिंसा के साथ-साथ हिंसा भी है।


वकीलों और हमारी न्यायपालिका के कामकाज से आम जनता अनभिज्ञ है। आपको महंगी फीस चुकानी पडती है, सलों-साल लग जाते हैं। न्याय मिलेगा के नहीं, इसकी अनिश्चितता बनी रहती है नतीजा पैसे और समय की बर्बादी ये आर्थिक नुकसान भी हिंसा का चेहरा दिखा रहा है।


सडक बननेवाले ठेकेदार, बिल्डर्स सीमेंट, रेत, लोहा निम्न स्तर का प्रयोग करते हैं। अपने आर्थिक लाभ हेतु कच्ची सडकें और मकान बना रहे हैं। ये भी हिंसा कर रहे हैं।


ज्वेलर्स भी अछूते नहीं लूटने में एक गेहने में कितने टांके लगे हैं, कितनी खोट है उस ज़ेवर में उसका वज़न भी सोने के मूल्य बराबर लेते हैं ग्राहक को इन सब बातों के बारे में नहीं पता, जिसका फायदा ये ज्वेलर्स उठा रहे हैं आर्थिक हिंसा करने में ये भी पीछे नहीं।


पेट्रोल और डीज़ल पम्प के मालिक भी पेट्रोल और डीज़ल में मिट्‌टी का तेल मिला कर वाहन चालकों के साथ धोखा कर रहे हैं। ये भी हिंसा का ही एक रूप है।


केमिस्ट की दुकान पर मिलने वाली ब्राण्डेड दवाईयों की नकली दवाईयां मिलती है। इन नकली दवाईयों में मुनाफा ज़्यादा मिलता है उनको, ये भी हिंसा ही कर रहे हैं।


राशन की दुकानों पर मिलने वाला अनाज निम्न स्तर का होता है मिलावटी, कंकड, पत्थर मिला हुआ । स्वच्छ अनाज की आप मात्र कोरी कल्पना कर सकते हैं। इसे भी हिंसा कह सकते हैं।


बैंकों के कामकाज पर आश्चर्य होता है, ग्राहक को पता ही नहीं चलता कब उसके होम लोन की ब्याज दर की वृद्धि हो गयी है कर्ज़ का बोझ ज्यों का त्यों पड़ा रहता है बैंक भी एक तरह से हिंसा कर रहे हैं


मित्रो आर्थिक हिंसा में भले ही खून-खराबा न दिखता हो लेकिन आर्थिक नुकसान हर परिवार पर चोट कर रहा है, विकास में रोडे अटका रहा है। इसके लिये हम ही जिम्मेवार हैं, पीडित हैं, हमारी सरकार भी संसद में बयान देने के सिवाय कुछ नहीं करती। कड़े क़ानून सिर्फ़ क़ानून की किताबों में ही पढनें को मिलते हैं और अगर अपराधी को सज़ा मिलती भी है तो वो भी न के बराबर, सबके हौसले बुलन्द हैं। रिश्वत और मुनाफे का एक बड़ा वृक्ष हमारे भीतर फैल गया है इसकी जडें बहुत गहरी धस गयी हैं। इनको काटना कठीन हो रहा है। गलत तरीके से रूपये कमाने वाला दानव हमारे अंदर पल रहा है इसे हमें ही खदेडना होगा। क्या ये संभव है ?

Monday, June 28, 2010

सियासतदाँ (राजनीतिज्ञ)

मित्रो एक रचना पेश कर रहा हूँ , इसमें  एक राजनीतिज्ञ क्या सोच रहा है
अपने देश और समाज के बारे में और उसका अपना स्वार्थ कैसे हल हो इसकी उसको चिंता है .....

सियासतदाँ (राजनीतिज्ञ) 

एक आसां नया हुनर सीखना चाहता हूँ,
सारे जग को पल में ख़रीदना चाहता हूँ


ये   सियासत क्या है एक खेल के सिवा,
जो  दांव खेला  है  वो जीतना  चाहता हूँ


ना जुर्म कबूल है न  क़ानून  पर चलूँगा,
क़ानून   को  पैरों   तले  रौंदना  चाहता हूँ


फिक्र क्या है, दर्द क्या है अपनी बला से,
अपनी  ज़िंदगी ठाठ   से जीना चाहता हूँ


कोई फरियादी,  मज़लूम  भीड़  पसंद नहीं,
पाँच साल में एक बार मिलना चाहता हूँ


झूठ,   फरेब,   दिलासे   ये  हथियार हमारे,
इनके शिकंजे में सबको भीचना चाहता हूँ


दौलत,  सत्ता,  एशो - आराम  बहोत  प्यारे, 
''रत्ती''  इनको   मैं  नहीं  खोना  चाहता हूँ

Friday, June 18, 2010

मौज-दर-मौज

मौज-दर-मौज

इस वक्त की तल्खीयों का
बोझ सबके शानों पर है
ऐसे लम्हात में इम्तहाँ से 
रोज रू-ब-रू होना पडता है
दरीचे दिल के जो, खोलोगे तो पाओगे
छोटे-छोटे रोज़न नहीं इसमें
बड़े-बड़े दर हैं
यहाँ से तो दर्दों के काफ़िले गुज़र सकते हैं 
इस मंज़र की पैकर 
लोगों के ज़हन में ऐसी उतरी है
बाक़ी बची ज़िंदगी में ख़ौफ के साये 
हमारे पीछे दौड़ेंगे
जैसे गली के कुत्ते
अजनबीयों पर टूट पड़ते हैं 
डरा-डरा सहमा हुआ आदमी
अपने जिस्मो-जां को
किसी तरह संभालता है
ये हर रोज़ की हिकारत 
ख़ुद-ब-ख़ुद पेश आती रहती है
मौज-दर-मौज सबके सामने .....

Monday, May 31, 2010

रूसवाई

रूसवाई



बड़े बेरहम होते हैं रूसवाई के रास्ते,
वो खोज रहा है अपनी रिहाई के रास्ते


एक जोश  था अजीब जुनूँ था उसे परवाज़ का,
न जुर्रत कर सका देखे तमाशाई के रास्ते


एक मज़बूत क़फ़स में सिमट गया है जिस्म उसका,
जौफ में ढून्ढता है वो तवानाई के रास्ते


वक़्त  बेवक्त जगाते  पहरेदार अरमानों को,
याद आते हैं अपनी बेनवाई के रास्ते


न वाकिफ अन्जाम से खतावार मुमकिन नहीं,
दोज़ख से भी हिरासां तन्हाई के रास्ते


जुर्म से झूक जाता है सर इज्ज़तदार का,
कहाँ खो गये ''रत्ती'' बेरियाई के रास्ते


शब्दार्थ 
जौफ = कमज़ोर, तवानाई = ताक़त, शक्ति 
बेनवाई = कंगाली, बेरियाई = निष्कपटता

Thursday, April 22, 2010

जोगी

जोगी


राम की अमृत-वाणी रसीली,
कर लो पान इसका जोगी रे


वो घट-घट वासी सर्वत्र बसे,
करो ध्यान उसका जोगी रे


बन-बन घूमने से ना मिलेगा
सबके दिल में बसता जोगी रे


जगत के सारे काम हैं झूठे,
उसमें क्यों फसता जोगी रे


माया के लोभ कारन से ही,
रब से विमुखता जोगी रे


राम नाम रामबाण दवा है,
''रत्ती'' नहीं जपता जोगी रे

Tuesday, April 20, 2010

बादल

बादल


एक निगाह झरोखे को चीरती
निहारती बड़े  अदब से
दिल ही दिल में पुकारती
तिश्नगी  लबों पे लिये
हलक सहलाते-सहलाते
फलक़ की तरफ देखा उसने
आफताब अपनी पूरी ताक़त  के साथ
तमाज़त बरसा रहा था
ज़मीं तो तवे जैसी तप रही थी
पांव रखते ही जलने का अहसास कराती
इधर कुछ दिनों से साज़ीश की बू आने लगी है
सूरज ने बादल से दोस्ताना बढ़ाया है
दोनों ने मिल कर हमारा खून  सुखाया है
सियासत की कौन सी चाल कब खेलनी है
अवाम को कैसे धोखा देना है
और फिर ऐसा मालूम होता है
बादल अब सरकारी मुलाज़िम हो गये हैं
जब चाहा आते हैं और जब चाहा चले जाते हैं
बेरोकटोक
ये बड़े हरजाई हैं
बरसते हैं तो समंदरों के सीने पर
झरनों के माथे पर,
नदिया के निचले किनारे पर
और मेहरबां हैं संगदिल पर्बतों पर
उनको नेहलाते हैं, ठन्डक देते हैं
मासूमियत भरे चेहरे लिये ताक़ते  हैं
सूखी बंजर ज़मीं की ओर
ऐसा जतलाते हैं वो नावाकिफ़ हैं
यहाँ के हालात से
तुम अज़ीम बन के न फिरो
तुम्हारा ये रवैय्या नागवार है हमको
इतने बेरहम न बनो
बस एक इल्तजा है तुमसे
बरसो बरसो बरसो ..... 

Thursday, April 8, 2010

उतावले शब्द

उतावले शब्द


सजल नयनों की भाषा
में थी अजीब निराशा
निराशा में छुपा था नवीन सपना
अनदेखा दृश्य कुछ कहानियाँ, बातें
और मस्तक की सिलवटों के पीछे नेत्र
जिनमें  बसा था एक शहर
सुनसान
उन अधरों पर थे अनगिनत उतावले शब्द
जो पड़े रहे, अटके रहे
कई दिनों, महीनों
मन बुद्धि के निर्णय की राह तकते
उचित समय की बाट जोहते
क़ैद होकर रह गए
मन की चारदिवारी में
भीतर के घमासान में
पिसते-पिसते धुल हो गए .....

Wednesday, April 7, 2010

बदगुमानी

"बदगुमानी"


वो शिकार हो गया है बदगुमानी का,
वक़्त आया जैसे किसी की क़ुर्बानी का


कुछ लोगों की   होती अजीब हरकतें,
उम्दा सुबूत   पेश  करते   नादानी का


खुद गुमराह हुए हैं या किये गए हैं,
एक अनोखा सबब पाया परेशनी का


बदगुमां   दमाग   में   रोज़न   होने लगे,
बरपा बेमज़ा कहर शऊर मनमानी का


जाने कैसे "रत्ती" तौफ़ीक़ ने पाँव पसारे
नया फुतूर देखा हैरतअंगेज़ कहानी का

शब्दार्थ
बदगुमानी = गलत धारणा, गुमराह = पथभ्रष्ट
सबब = कारण, बदगुमां = संशयी, रोज़न = छेद, बरपा = उपस्थित
शऊर = तरीका, तौफ़ीक़ = हिम्मत, शक्ति, फ़ूतूर = दोष

Sunday, March 7, 2010

साये

साये


पहले   साये  चलते थे  अब बोलने  लगे,
मेरी  हंसी दुनियाँ में ज़हर घोलने लगे

जब रात गहरायी आंखें बंद होने लगी,
तो सपनों में डरावने  मंज़र दौड़ने लगे

जैसे  कोई तहक़ीकात कर रहा हो मेरी,
सारे  गुनाहों  की  फेहरिस्त  खोलने  लगे

ज़िन्दगी  की  शाम   दूर  से  तमाशा  देखे,
भूखे  सवेरे  अब   मेरी  सांसें मरोड़ने लगे

मैं बहोत मुतासिर था अपने अज़ीज़ों से,
मुझे देखते ही वो अपना मुँह मोड़ने लगे

“रत्ती“ मयख़ाने के सिवा कहाँ  जाते हम,
जाम पी पी के  सारे  गिलास तोड़ने लगे

Sunday, February 28, 2010

बुरा न मानो होली है

बुरा न मानो होली है


ये होली भी क्या होली है
चेहरे सब लाचार  से
रोनक तो गुम  हो गयी
लोग लगें बीमार से 


ज़हरीले रंगों से भैया
अंगों को बहुत ख़तरा
बेचनेवाले मुनाफा चाहें  
न मौत खरीदें बाज़ार से


इस होली में प्रेम नहीं है
छुपी नागिन वासना
जोर-ज़बरदस्ती से त्रस्त सब
और अटपटे व्यवहार से


नकली मावे की मिठाई से 
मुंह मीठा न कराओ 
रंग में भंग न हो जाये 
गुड खिला दो प्यार से 


मीठे शब्दों की चाशनी से 
चीनी का स्वाद ले लो 
सरकारी कड़वी नीतियों से घायल 
दुखी महंगाई की मार से 


होली के रंग चमकते रहते 
महंगाई अगर न होती
भोली जनता बड़ी ख़फ़ा
निकम्मी सरकार से


राधा मोहन की होली देखो
श्रद्धा प्रेम की खुशबू आवे
ग्वाल-बाल, रसिक भक्त
विभोर अमृत की बौछार से


और कुछ दे नहीं सकते
शुभकामना स्वीकार लें
"रत्ती" भर संतोष सही 
न गिला करो अपने यार से  

Monday, February 8, 2010

खता

खता


हम गल्तियाँ अक्सर रोज़ ही किया करते हैं,
ये भी सच है  के  दोष दूजे को  दिया  करते  हैं


ये   फितरत   है,   शरारत  है  या  नादानी  कोई,
सबक लेने   की न सोच  फिर   गिला करते हैं


अब   तलक   ये  तमाशा   यूँ    ही  चलता  रहा,
ज़िन्दगी को तमाशा   बना के जिया करते हैं 


कैसी-कैसी जंग  सही  ज़ख़्मी भी  हुआ  मगर,
मरहम   न   दिया   न मरहम  लिया   करते    हैं 


सपनो   की   दूनियाँ   में   राजा   ही  बनते    रहे,
हकीक़त ये  के नोकरी दूजे की किया करते हैं


शराब में ऐसा क्या है इसके बिना रह नहीं सकते,
पैसा न भी हो पास तो मांग के पीया करते हैं


"रत्ती" लम्बी  दूरियाँ खुद ही कम हो जाती हैं,
जब-जब   हम   अपने होटों   को   सिया करते   हैं

Wednesday, January 20, 2010

अहवाले बशर

अहवाले बशर



ये   नुक्स-ए-आबो-हवा  देखी  ज़माने में,
सदियां लग जाती लोगों को समझाने में


ये दौर-ए-गर्दिश है, इम्तहां लेता सबका, 
हर शख्स   मसरूफ नसीबा चमकाने में 


यहां जुर्म को बेरोकटोक रक्स करते देखा,
इंसाफ  को   शर्म   आयी  रू- ब- रू आने में 


कम लिबास में हूरें उड़ती हैं इन फ़ज़ाओं में,
नग्नता गली - गली में भलाई मुंह छिपाने में


अफ़साना - ए - फुरक़त   न   दोहराओ  तुम, 
बहोत मज़ा आता उनको  सितम   ढाने  में


माज़ी की खता से माकूल कदम उठाये न, 
तजुर्बा    रायगां   हयात  के    शामियाने  में


"रत्ती" अहवाले बशर न पूछो तुम हमसे,
उलझा रहता रात-दिन दौलत कमाने में


शब्दार्थ
नुक्स-ए-आबो-हवा = दूषित जलवायु
मसरूफ = व्यस्त, रक्स = नृत्य
अफ़साना-ए-फुरक़त = विरह की कहानी
माज़ी = गुज़रा हुआ समय, माकूल = उचित,

रायगां = व्यर्थ, हयात = जीवन
अहवाले बशर = मानव का हाल

Tuesday, January 5, 2010

दहर

दहर

राह-ए-दहर में   बातों के,  फसानें थे बहोत 
काली  रातों  में दिल में, अफ़साने  थे  बहोत   

मेरी   मौजूदगी  में जो,  कतराते   रहते थे,
जाने  के   बाद  होठों  पे,  तराने  थे    बहोत 

हम  ही अकेले  न  थे,  जो उनपे  मरते थे,
गली-गली,  गाँव-गाँव,  अनजाने  थे बहोत

रात दिन  घंटों उसका, इंतज़ार  करते  रहते,
उसकी इक  झलक पाने के, दिवाने थे बहोत 


उनसे  रब्त क़रीब का,  हैं  वो  दिल के  पास,
रूठे   एक   दिन  ऐसे  जैसे,  बेगाने  थे  बहोत 

हर लम्हा ज़ीस्त  का “रत्ती“, इम्तहान  सा लगे,
नसीब   को  नये   खेल,   आज़माने  थे   बहोत 

शब्दार्थ
राह-ए-दहर = जीवन की राह, रब्त = रिश्ता