Sunday, September 2, 2018

चार लाईने - १



चार लाईने - १  

दुआयें  काम नहीं करतीं, अगर दिल साफ़ नहीं होता 
अपने आप गुनाह किसीका, कभी माफ़ नहीं होता 
सलाखों के पीछे भी कभी, कुछ दिन गुज़ारने होंगे  
जैसा तू चाहे "रत्ती" वैसे तो इन्साफ नहीं होता 

दर्पण के पन्नों से 


"सिक्सर"

"सिक्सर"



एक ही सिक्सर काफी है 
ज़िन्दगी बनाने के लिये 
तैयार रहो मौका मिलेगा 
तुम्हें आज़माने के लिये 

मौके रोज़ ही आते हैं 
झांको ज़रा उनमें तुम 
कोई दूसरा न आयेगा 
तुमको बताने के लिये 

वक़्त की मार काम की 
सिखलाती हरेक को 
सीखनेवाले में खोट है 
कोशिश नहीं कुछ पाने के लिये 
 
खुदा करम तो करेगा 
अपने क़दमों को चला 
"रत्ती" बाँधी तूने ज़ंजीरें 
पैर न उठाने के लिये 

दर्पण के पन्नों से  





संभल जाओ.....

"संभल जाओ"

घर के भीतर के अनोखे दृश्य
भयावह, प्रचंड अग्नि के कुण्ड
उसमें जलती खुशियाँ
शब्द बाणों से घायल तन और मन
ऐसे में शांति की बातें भला कैसे करेंगे ?
पीड़ा रोम-रोम में, नख से शिख तक
न कारण जानने की जिज्ञासा
न उपाय के प्रयास
के हम पीड़ित, दुखी क्यों हैं ?
"कान के कच्चे, न अपने घर के पक्के
न बात हज़म करने की शक्ति"
अक़्ल पर पड़े पर्दे
और गर्व की सीढ़ी पे चढ़ कर
गगन पर विराजमान
महाशय, टक-टकी लगाये निहारते
नोंक-झोंक की प्रतीक्षा में रहते
इर्द-गिर्द मंडराते स्वार्थी रिश्ते तो
गृह युद्ध ही करायेंगे ?
आकाश को धरती पर खींच लायेंगे
"घर की बुनियाद टूटेगी, घड़े का पानी सूखेगा" 
इसके सिवा क्या होगा ?
और रही-सही कसर सास-बहू के सीरियलों ने पूरी दी 
अग्नि में घी तो ज्वाला तेज़
ज़हन में तैरतीं वही बातें 
आप इसमें से बच के साफ़-सुथरे नहीं निकल सकते
भविष्य के अच्छे-बुरे फल
अभी आपने तय कर लिये हैं
भोगना पड़ेगा, कुदरत का क़ानून है 
सुख की चंद गिनी-चुनी घड़ियाँ
और दुख सदा आपका संगी-साथी रहेगा 
स्वयं को टटोलो, सोचो, न्याय तुम्हीं करो 
दूसरे भस्म कर देंगे
बाहें जोड़ो, कंधे मिलाओ
"रत्ती" समय है संभल जाओ.....

दर्पण के पन्नों  से


"ये वक़्त"

हरपल सवालों में हमें उलझता है
ये वक़्त रोज़ सबको खूब नाचता है
क्या राहें  आसां  न होंगी कभी,
ग़मों का कारवाँ आगे बढ़ जाता है

रहने भी दो ऐसी दिलासों की बातें
दिल टूटे हैं क्या करेंगी मुलाक़ातें 
कोई दुखी को नहीं गले लगता है

अपनी-अपनी सोच से सब दूर हो गये
कुछ उनके कुछ मेरे सपने चूर हो गये
क्या ऐसे में मन को को भाता है

क्यों ख़ाक पे बैठी हीरे सी ज़िन्दगी
क्यों फैली बदबू ज़हन में गंदगी
"रत्ती" कोई प्यार के जुमले नहीं सुनाता है

हरपल सवालों में हमें उलझता है
ये वक़्त रोज़ सबको खूब नाचता है
क्या राहें  आसां  न होंगी कभी,
ग़मों का कारवाँ  आगे बढ़  जाता है

दर्पण के पन्नों  से