ग़ज़ल - १२
कभी मशहूर था इक नाम था गुमनाम से पहले .
जिसे सर पे बिठाते पूछते नाकाम से पहले
क़सक रह रह के तड़पती रही इस जान को दिन भर,
न आया संगदिल माही मेरा वो शाम से पहले
जली गहरी बुझी यादों से शिकवा न गिला कोई,
गुज़र ही जायेगी ये ज़िन्दगी फ़रज़ाम* से पहले
ख़ता जो हो गयी तो हो गयी बस में नहीं क्या ये ?
ज़रा तुम सोच लेते इक दफ़ा अंजाम से पहले
न मयखाना रहा ना महकती यादें सनम तेरी,
ज़रा लुत्फ़ मिलेगा हमको पूछो जाम से पहले
खुली पलकों तले ढूंढे ज़रा सी छाँव जब "रत्ती"
सितम ढाये ज़माने ने मगर हर काम से पहले
फ़रज़ाम = नतीजा, परिणाम, अंत
1222/1222/1222/1222