Thursday, December 25, 2014

कटी पतंग

कटी पतंग
बचपन पतंगों की बहार सा
लाड, प्यार, दुलार सा
हुड़दंग, शरारत, मस्ती
नन्हे होंठों पे मुस्कान हस्ती
कौन आया कौन गया
क्या खाया क्या पकाया
क्या टुटा क्या फूटा
न चोट का डर, न दर्द की खबर
फिर आया
जवानी का अनोखा व्यव्हार
बात-बात पे गुस्सा प्रतिकार
खिलने लगे तन के बंध
रोज़ तू-तू मैं-मैं होती जंग
सजगता में भी थे मदहोश
जवानी में गुम था होश
चारों और संघर्ष के मेले
हमने भी खूब खेल खेले
किसी को लूटा, किसी को डुबाया
उसके रोने पे बड़ा मज़ा आया
फिर दस्तक दी
वक़्त का पहिया ले आया
चिरपरिचित अंदाज़ में बुढ़ापे से मिलाया
मैंने अनुभवों से कुछ सीखा था
वही बार-बार दोहराया
जीवन नैया डगमगाती रुकी किनारे
वहां अतीत के फूल थे, भविष्य के अंगारे
पग धरूँ तो किस जगह
सब कहते तुम नहीं हो हमारे
कटी पतंग क्या करे
नहीं उड़ने की क्षमता
भिक्षा मांगने की मेरी नहीं मंशा
मैं तार-तार कटी पतंग सही
बस स्वतंत्रता चाहूँ
प्रारभ्ध की हवा जहाँ ले चले वही जाऊं
आओ, आओ निकट आओ
टूटी डोर बची है ले जाओ …
टूटी डोर बची है ले जाओ …
 

Thursday, December 18, 2014

ग़ज़ल - १४

ग़ज़ल - १४
याद उसकी बड़ी सुहानी थी।
बस मेरे पास इक निशानी थी।।
रात भर जाग के गिने तारे,
सुबह तक साँस भी बचानी थी।
प्यार की मार भी अनोखी है,
और हमको किमत चुकानी थी।
बंद देखा हरेक दरवाज़ा,
उनको हमसे नज़र चुरानी थी।
हो मिलनसार तो बहुत अच्छा,
फिर मुहब्बत फकत निभानी थी।
जल गयी फिर बुझी अखियाँ जो,
प्यास दिन रात ही बुझानी थी।
साफ "रत्ती" नहीं शीशा दिल का,
इल्म की आग ही जलनी थी।