Monday, June 24, 2013

जी बहलाना है

जी बहलाना है

सुर्ख होठों पे अंगारों को सजाना है,
ये चलन पुराना पर नया ज़माना है

सियाह रात कुछ तो सितम ढायेगी,
सुबह के वास्ते चुटकी नूर बचाना है

अश्कों को गिरने से कौन रोके अब,
सँभालते-सँभालते फिर बह जाना है

तन्हाइयो को ग़म-ओ-दर्द से क्या वास्ता,
दीवारों से कहना खुद को सुनाना है

बेकद्री के दौर में सिले होंठ बेबस,
बिगड़े हालत से नया रास्ता बनाना है

हयात पिला रही कडवी दवा के जाम,
मैखाने में वो बात नहीं लहू को सुखाना है

मेरी सुनहरी यादों को सानिहा न बनाओ
मकतल-ए-हयात में सरमाया बचाना है

अफ़साने भी लाख भरे हैं ज़हन में,
"रत्ती" सोच-सोच के जी को बहलाना है