नन्ही कली
यौवन की दहलीज़ पर अक़्सर क़दम बहक जाते हैं
और जवानी सर चढ़ कर बोलती है
मनमानी करती है
कुछ क्षणिक सुख की अनुभूति होती है
पश्चात मुसीबतों को आमंत्रण
जवानी की एक भूल, वो लहरों का संगम
जिसमें युगल अंधे होकर सीमाओं को लांघ जाते हैं
नतीजा नवजात की उत्पति
फिर समाज का भय, इज्ज़त नीलाम होने का डर
ये ड्रामा नहीं, फिल्मी कहानी नहीं, सच्चाई है
एक माँ घुप अंधेरे में, आधी रात को निकलती है
एक बदबूदार कूडे के डब्बे में
अपने कलेजे के टुकडे को फ़ेंक कर
छूटकारा पा लेती है
क्या होगा उस नन्हीं सी कली का ?
देखिये, माँ के मुंह फेरते ही
भिनभिनाती मक्खियों ने स्वागत किया
और मूषक महाराज क्यों पीछे रहते
उन्होंने अपनी जिव्हा को पवित्र किया
चोंच से लहू-लूहान किया नवजात को
आज महभोज मिला कूडे़ के ढेर में
भला हो उस राहगीर का
कानों में दर्द भरी आवाज़ सुनकर
वो कूडे़ के ढेर में बच्चे को देखकर
आश्चार्य चकित हो गया
वो फरिश्ता बन कर आया था
उसे अस्पताल ले गया
हम कितने कठोर दिलवाले हैं
माँ का ये रुप इज्ज़त के क़ाबिल नहीं
वो पिता भी कम दोषी नहीं
पाप का भागीदार है
आज ममता से भरा हुआ दिल
चट्टान में परिवर्तित हो गया है
माँ तुम्हें सौगन्ध है,
तुम जहाँ कहीं भी हो, वापिस आ जाओ,
मुझे बचाओ, तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता
तुम्हारे जीवित रहते लोग मुझे यतीम कहते हैं
ग़ल्ती माँ -बाप की है
सज़ा नन्हीं कली को क्यों ?
बच्चे को क्यों ?
बहुत मार्मिक रचना है।बहुत सुन्दर!
ReplyDelete