Thursday, December 18, 2014

ग़ज़ल - १४

ग़ज़ल - १४
याद उसकी बड़ी सुहानी थी।
बस मेरे पास इक निशानी थी।।
रात भर जाग के गिने तारे,
सुबह तक साँस भी बचानी थी।
प्यार की मार भी अनोखी है,
और हमको किमत चुकानी थी।
बंद देखा हरेक दरवाज़ा,
उनको हमसे नज़र चुरानी थी।
हो मिलनसार तो बहुत अच्छा,
फिर मुहब्बत फकत निभानी थी।
जल गयी फिर बुझी अखियाँ जो,
प्यास दिन रात ही बुझानी थी।
साफ "रत्ती" नहीं शीशा दिल का,
इल्म की आग ही जलनी थी।
 

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