बेचारा मदन
इस ढलते जीवन की सांझ की बेला में,
इश्वर कृपा के सहारे बैठा,
मदन कभी गगन तो, कभी धरा को ताकता,
खोपडी में धसी लखों चिन्ताओं की गोलियाँ,
झरने की भाँती गिरते आँसू, अस्वस्थ जर जर शरीर,
साहस की कमी खलती है,
ग़रीबी के श्राप से पीड़ित, सुख-सुविधाओं से वंचित,
फटी झोली में सुनहरे कल की आशा
और वर्तमान के शीशे पर,
धूल ही धूल .....सब कुछ फीका .....
धुन्धला .....
और निराश ख़ुद से बातें करता बड़बड़ाता मदन,
मेरे जो आंसू बहे उनकी गिनती नहीं,
हर त्रासदी को झेलता जीवन ख़तरे में,
न कम होनेवाली लाइलाज पीड़ा,
प्रश्नों के उधेड़बुन में फंसा,
किसी अपराधी की भांति, सख्त दंडात्मक करवाई का शिकार,
शरीर की दशा बहुत कुछ कहती है,
फांके ही फांके, अन्न के दाने मोतियों से भी महंगे लगते,
रूक-रूक के आवागमन करते श्वास,
गले से निकली आवाज़ कर्कश हो चली,
फटी बांसुरी की तरह,
आखों के गड्ढों में सुखी पुतलियाँ,
जैसे दीये में तेल की कमी,
शरीर हड्डीयों का ढांचा, कंकाल को ढोने में असमर्थ,
चेहरे की अनगिनत झुर्रियों को देखो,
मकड़ी का जाल,
क्या मैं बच पाऊंगा ?
भविष्य में होनेवाली घटनाओं का आभास हो रहा है,
मैं जब कभी भूले से नदिया किनारेवाले,
मरघट के पास से गुज़रता हूँ,
मुझे देख के वो पुकारता है,
हंसता है, मुझे चिढ़ाता है,
इशारे से बुलाता है कभी-कभी,
मदन आ जाओ, मदन आ जाओ,
तुम्हारी सारी चिन्ताओं का समाधान मेरे पास है,
आओ मेरी आगोश में समा जाओ,
मदन ..... नहीं ..... नहीं .....मेरे बच्चे .....
मेरी पत्नी ..... मेरा परिवार .....मेरा घर .....
मेरे खेत ..... नहीं ..... नहीं ..... नहीं .....
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