Tuesday, January 5, 2010

दहर

दहर

राह-ए-दहर में   बातों के,  फसानें थे बहोत 
काली  रातों  में दिल में, अफ़साने  थे  बहोत   

मेरी   मौजूदगी  में जो,  कतराते   रहते थे,
जाने  के   बाद  होठों  पे,  तराने  थे    बहोत 

हम  ही अकेले  न  थे,  जो उनपे  मरते थे,
गली-गली,  गाँव-गाँव,  अनजाने  थे बहोत

रात दिन  घंटों उसका, इंतज़ार  करते  रहते,
उसकी इक  झलक पाने के, दिवाने थे बहोत 


उनसे  रब्त क़रीब का,  हैं  वो  दिल के  पास,
रूठे   एक   दिन  ऐसे  जैसे,  बेगाने  थे  बहोत 

हर लम्हा ज़ीस्त  का “रत्ती“, इम्तहान  सा लगे,
नसीब   को  नये   खेल,   आज़माने  थे   बहोत 

शब्दार्थ
राह-ए-दहर = जीवन की राह, रब्त = रिश्ता      

3 comments:

  1. नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ अपनी पहली मुलाक़ात का आगाज़ हो तो ज्यादा बेहतर है. हमारी पहली मुलाक़ात है, आप मेरे ब्लॉग पर मुहब्बत से आये, प्यारा कमेन्ट दिया और दिल में जगह बना ली. मैं आप जैसे शानदार आदमी के सामने शर्मिंदा हूँ, बदले में ऐसा कुछ नहीं कर रहा हूँ जिससे यह अंदाज़ा लगे कि मुहब्बत का जवाब मुहब्बत होता है.
    मुझे यह कहना है कि आप अपनी प्रतिभा के साथ अन्याय कर रहे हैं. आप में टैलेंट है, अच्छे विचार है, कविता का पूरा माहौल बसा हुआ है आपके मन-मस्तिष्क में, केवल थोड़ा सा कविता के शास्त्र और व्याकरण का अध्ययन करना है आपको. अपने इर्द-गिर्द किसी समर्थ रचनाकार को तलाश कर लें तो शायद बहुत जल्द आप बड़े-बड़ों के कान काट लें.
    मेरी बातें अगर बुरी लगी हों तो क्षमा चाहूँगा. आप चाहेंगे तो दूसरे ब्लोगर्स की तरह प्रशंसा भी कर सकता हूँ. नाराज़ न होना भाई, मैं अपना स्वर बदल के भी दिखा देता हूँ-----'आपकी रचना ने बहुत प्रभवित किया, आप सदैव ऐसा ही लिखते रहे, इस रचना के लिए बधाई...वगैरह..वगैरह'. अब तो खुश हैं न!
    आशा है मुलाक़ात का यह सिलसिला बना रहेगा. और हाँ... नाराजगी हो तो भी बता दीजियेगा.

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  2. आहा क्या शे'र कहे हैं...
    मेरी मौजूदगी में जो कतराते रहते थे
    जाने के बाद होंठ पे तराने थे बहोत
    ...
    हम अकेले ही न थे.....

    सभी शे'र पसंद आये...

    पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ. आपने सचमुच प्रभावित किया है.

    आपके शेर सुनकर कुछ अपनी बात सी लगी, अभी हाल ही में एक ग़ज़ल कही थी.
    यहाँ देख सकते हैं. http://sulabhpatra.blogspot.com/2009/12/blog-post_28.html

    वैसे मैं अपनी ग़ज़लों को ग़ज़ल नहीं कहना चाहता क्यूंकि इसमें बह'रों की त्रुटियाँ होती है. अभी बहुत सीखना बाकी है.

    एक बात आपकी पसंद आई, आज़ाद नज़्म और शे'र अपने मूल भाव में कहना जरुरी है.

    सर्वत साहब की बात गौर करने लायक है. आप चाहे तो यहाँ तशरीफ़ लाये, सुबीर संवाद सेवा (यहाँ से मुझे भी लाभ हुआ है)

    - सुलभ

    (Word verification disable kar de. comment dene me suvidha hogi)

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  3. Bahut Sundar .....Shubhkamnae!!
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

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