Friday, June 18, 2010

मौज-दर-मौज

मौज-दर-मौज

इस वक्त की तल्खीयों का
बोझ सबके शानों पर है
ऐसे लम्हात में इम्तहाँ से 
रोज रू-ब-रू होना पडता है
दरीचे दिल के जो, खोलोगे तो पाओगे
छोटे-छोटे रोज़न नहीं इसमें
बड़े-बड़े दर हैं
यहाँ से तो दर्दों के काफ़िले गुज़र सकते हैं 
इस मंज़र की पैकर 
लोगों के ज़हन में ऐसी उतरी है
बाक़ी बची ज़िंदगी में ख़ौफ के साये 
हमारे पीछे दौड़ेंगे
जैसे गली के कुत्ते
अजनबीयों पर टूट पड़ते हैं 
डरा-डरा सहमा हुआ आदमी
अपने जिस्मो-जां को
किसी तरह संभालता है
ये हर रोज़ की हिकारत 
ख़ुद-ब-ख़ुद पेश आती रहती है
मौज-दर-मौज सबके सामने .....

20 comments:

  1. बडिया प्रस्तुति बधाई

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  2. सुन्दर रचना है बधाई\

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  3. सचमुच वहाँ तो दर्दों के काफिले गुजर सकते हैं ...और खौफ के साए आदमी के पीछे उसी तरह दौड़ रहे हैं , इनसे बचने के लिए आदमी जितनी तेज दौड़ता है ये भी उतनी तेज आदमी के पीछे दौड़ते हैं ।

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  4. bahut khoob! dard saaf jhalaktaa hai apki rachnaa se. dil ki baat dil tak gayi.

    --Gaurav

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  5. Good work !!
    aisi hi rachanye publish karte rahiye...

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  6. ek bahut acchi prastuti hai mahoday ki |

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  7. Wah bohot khub dua hai ke aap aise hi behtarin rachnae likhe

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  8. बहुत बढ़िया लेख लिखा है

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  9. Khoob Surinder sahab... bahut khoob !! :)

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  10. aaj hume kagaj pe aaina nazar aaya hazur ke shabdo me

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