Saturday, February 26, 2011

ग़ज़ल - १

हर दिन ना होता जश्न भरा ना लम्हा लगता है,
है भीड़ यहाँ फिर भी हर शख्स तनहा लगता है 

दर्दे-दिल क्या होता है पत्थर दिल क्या जानें,
हर बार मुझे प्यार फक़त धोखा लगता है

मैं कू-ए-यार गया तो था नज़राना देने,
आँख उठा के ना देखा वो रूठा लगता है

वो चाँद बड़ा शातिर है भोला ना मानो रे,
हँसता है डसता है फिर भी अच्छा लगता है

हर सिम्त यहाँ महफ़िल में चर्चे होते रहते
"रत्ती" हो कोई बात नयी मजमा लगता है

6 comments:

  1. चांद पर बेहतरीन शे‘र....
    बेहतरीन ग़ज़ल...
    हर शे‘र में आपका निराला अंदाज झलक रहा है।

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  2. सही कहा आप ने ...
    यहाँ दोस्त मिलना बहुत ही मुश्किल है !
    दुनिया की इस भीड में हम सब तन्हा ही हैं

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  3. बहुत सुन्दर गज़ल..हरेक शेर दिल को छू जाता है..

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  4. सुरेन्द्रजी,आपकी गजल पड़कर बहुत सुकून मिला --मेरे ब्लाक पर आपका स्वागत हे |

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  5. बहुत खुबसूरत ग़ज़ल एक -एक पंक्ति जैसे खुद ही सवाल कर रही हो और खुद ही जवाब भी दे रही हो बहुत ही खुबसूरत |
    बहुत बहुत बधाई |

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  6. शब्द पुष्टिकरण हटा दें तो टिप्पणी करने में आसानी होगी ..धन्यवाद
    वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
    डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो NO करें ..सेव करें ..बस हो गया

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