ग़ज़ल - २
ख़ुशी के बाद ग़म का चुपके से आना भी होता था,
खुशियाँ चार दिन फिर रूठ के जाना भी होता था
अज़ल से तो ग़ज़ल का साथ भाया रास आया,
जवानी है दीवानी अंदाज़ मनमाना भी होता था
जिसे देखो सदाक़त की क़सम खाई दावा जैसे,
असर कैसे पड़े झूठों से याराना भी होता था
अचानक क्या हुआ बादल फलक से टूट के बिखरे,
कभी नज़दीक सूरज का गुज़र जाना भी होता था
आग लगा के "रत्ती" खेल खेला ना करो लोगों,
गिला, शिकवा, कसीदे पढ़ के इतराना भी होता था
Wah!Wah!Wah!
ReplyDelete