Monday, April 2, 2012

ग़ज़ल - ७

ग़ज़ल - ७

ज़माने भर के हसीं चेहरे ही ज़हन में आये
नये-नये ख़ाब और रगबत ज़रा सी हरकत चुभन में आये

शऊर सीखा है इश्क़ का आपसे हशर भी कमाल होगा
वफूर-ए-इश्क़ साँस में रोम-रोम में तन-बदन में आये

जवां हसीं ज़िन्दगी की इब्तिदा तो हुई मगर फिर
दहर के फितने खिले दिलों पे सितम को ढाने चमन में आये

सुलग गये दिल न जाने किस बात पर हुआ रंज आज उनको
जहां पे बिखरे महक ख़ुशी झूमें आप उस अंजुमन में आये

नवर्द-ए-इश्क़ जीत के तुमको साफ राहें नहीं मिलेंगी
सुकून की रंग-ओ-बू फैले नहिफ उल्फत शेवन में आये

गिरा न देना मुझे नज़र से बहोत छानी है खाक़ मौला
दमे-आख़िर बस लबों पे हो नाम हरपल तेरा ज़हन में आये

रवायतों का किया धरा है बशर न सर को उठा सकेगा
गुमान मग़रिब गुमान मशरिक़ ये ज़ुल्म "रत्ती" अमन में आये

१२१२२, १२१२२, १२१२२, १२१२२
शब्दार्थ
रगबत - रूचि, शऊर - योग्यता, तरीका, वफूर - ज़्यादा,  इब्तिदा - शुरुवात
दहर - दुनियां, फितने - उपद्रव, कठिनाइयाँ, अंजुमन - महफ़िल, सभा
नवर्द-ए-इश्क़ - प्रेम की जंग,  रंग-ओ-बू - रंग और सुगंध, नहिफ - कोमल, मृदु,
शेवन - आचरण, व्यवहार, रवायत - रिवाज़, बशर - आदमी,  मग़रिब  - पश्चिम, मशरिक़ - पूरब
      

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