Sunday, September 2, 2018

संभल जाओ.....

"संभल जाओ"

घर के भीतर के अनोखे दृश्य
भयावह, प्रचंड अग्नि के कुण्ड
उसमें जलती खुशियाँ
शब्द बाणों से घायल तन और मन
ऐसे में शांति की बातें भला कैसे करेंगे ?
पीड़ा रोम-रोम में, नख से शिख तक
न कारण जानने की जिज्ञासा
न उपाय के प्रयास
के हम पीड़ित, दुखी क्यों हैं ?
"कान के कच्चे, न अपने घर के पक्के
न बात हज़म करने की शक्ति"
अक़्ल पर पड़े पर्दे
और गर्व की सीढ़ी पे चढ़ कर
गगन पर विराजमान
महाशय, टक-टकी लगाये निहारते
नोंक-झोंक की प्रतीक्षा में रहते
इर्द-गिर्द मंडराते स्वार्थी रिश्ते तो
गृह युद्ध ही करायेंगे ?
आकाश को धरती पर खींच लायेंगे
"घर की बुनियाद टूटेगी, घड़े का पानी सूखेगा" 
इसके सिवा क्या होगा ?
और रही-सही कसर सास-बहू के सीरियलों ने पूरी दी 
अग्नि में घी तो ज्वाला तेज़
ज़हन में तैरतीं वही बातें 
आप इसमें से बच के साफ़-सुथरे नहीं निकल सकते
भविष्य के अच्छे-बुरे फल
अभी आपने तय कर लिये हैं
भोगना पड़ेगा, कुदरत का क़ानून है 
सुख की चंद गिनी-चुनी घड़ियाँ
और दुख सदा आपका संगी-साथी रहेगा 
स्वयं को टटोलो, सोचो, न्याय तुम्हीं करो 
दूसरे भस्म कर देंगे
बाहें जोड़ो, कंधे मिलाओ
"रत्ती" समय है संभल जाओ.....

दर्पण के पन्नों  से


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