लहर
मैं लहर हूँ
उठती हूँ गिरती हूँ
यही मेरा काम है
इसीसे मेरा नाम है
हर उठती तरंग मेरी पहचान है
गिरने का मज़ा, मिलने का मज़ा,
निराला है मेरा अंतरमन वो ही जानें,
गिरने और मिटनें में पीड़ा तो है,
पीड़ा में छुपा एक जीवन नया,
आना-जाना, परिवर्तन,
प्रकृति का नियम,
नियम में बंध कर ही,
कार्यों को नया क्रम मिला,
नहीं तो सब काज आधे-अधूरे रह जाये,
एक दूसरे की बाट जोहते तकते रह जाए
आस-निरास की उधेड़बुन में,
जीवन नैय्या, तट पर ही न पहुँच पाती,
लहर साँसों को नहीं गिनती,
वो निरन्तर शक्ल दिखा कर लुप्त हो जाती है,
फिर चली आती है ..... फिर लुप्त हो जाती है .....
फिर .....
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