Sunday, July 19, 2009

एक सच

एक सच
क्षण में जनम हो रहा
और विलय भी हो रहा
आस-निरास पर टिका

ये जीवन भी रो रहा
आम के बदले तू धरा में

क्यों बबूल बो रहा
पीड़ा से भरे मन को

आंसुओं से धो रहा
कुंभकरण की भांति मनुष्य

है आज भी सो रहा
बहुमूल्य सभ्यता,प्रथा,

संस्कृति भी खो रहा .....


3 comments:

  1. कुम्भकरण की भांति मनुष्य
    है आज भी सो रहा
    बहुमूल्य सभ्यता प्रथा
    संस्कृति भी खो रहा ....

    सुरिंदर जी ....
    बहुत ही भावपूर्ण , संदेशात्मक , और
    सटीक बात कही है आपने ....
    ये सिर्फ एक अच्छी रचना न हो कर
    एक आहवान है हम सब के लिए ....

    बधाई स्वीकारें
    ---मुफलिस---

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  2. सच को बेहतरीन शब्दों से सजा कर जन मानस को उद्वेलित करने का आपका प्रयास सराहनीय है.
    बधाई.

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  3. मनुष्य इस नियति का जिम्मेदार खुद है.....बहुत बढिया लिखा है

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