Saturday, July 18, 2009

हिंसा



हिंसा

वफ़ा-जफ़ा की बातें दोहरायी गयी,

नज़रें लाल सुर्ख फिर लड़ायी गयी

क़यामत को बुलाने का इरादा है उनका,

जिस्मों पे ज़ोर से तलवार लहरायी गयी

वो क्या जानें लहू बेशकीमती है,

बहा दी नदियाँ साँसें रूकवायी गयी

लाशों की सेज पे चले हंस्ते हुए,

गली-गली खुशीयाँ मनायी गयी

कटे जिस्म के टुकड़े पूछते हैं सबसे,

क्यों नफ़रत की आग लगायी गयी

किसका गुनाह कितना बड़ा मालूम नहीं,

बस तश्दुद्द कू-ब-कू फैलायी गयी

ज़मीं के बाशिंदों ने सीखा अब तलक,

एक मज़हब की दिवार बनायी गयी

कहीं छोड़ आये प्यारे हबीब रहम को,

बड़े पीरों की संगत भी ठुकरायी गयी

हादिसों से दिल की दिवारें काँपती हैं "रत्ती",

मगर किसी की जां न बचायी गयी


1 comment:

  1. लाजवाब! हमने ये नज़ारे देखे हैं इसीलिये ये रचना जैसे हकीकत सी लग रही है।

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