Monday, February 8, 2010

खता

खता


हम गल्तियाँ अक्सर रोज़ ही किया करते हैं,
ये भी सच है  के  दोष दूजे को  दिया  करते  हैं


ये   फितरत   है,   शरारत  है  या  नादानी  कोई,
सबक लेने   की न सोच  फिर   गिला करते हैं


अब   तलक   ये  तमाशा   यूँ    ही  चलता  रहा,
ज़िन्दगी को तमाशा   बना के जिया करते हैं 


कैसी-कैसी जंग  सही  ज़ख़्मी भी  हुआ  मगर,
मरहम   न   दिया   न मरहम  लिया   करते    हैं 


सपनो   की   दूनियाँ   में   राजा   ही  बनते    रहे,
हकीक़त ये  के नोकरी दूजे की किया करते हैं


शराब में ऐसा क्या है इसके बिना रह नहीं सकते,
पैसा न भी हो पास तो मांग के पीया करते हैं


"रत्ती" लम्बी  दूरियाँ खुद ही कम हो जाती हैं,
जब-जब   हम   अपने होटों   को   सिया करते   हैं

3 comments:

  1. बहुत खूब, जनाब!

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  2. बहुत जोरदार लिखा है!! बधाई।

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  3. खता की ताकत को उकेरती। खता से सबक लें तो फिर यूं सब बक बक ही न करें। दूरियां यूं ही नहीं आतीं, हम खुद ही बना लिया करते हैं।

    शब्‍द पुष्टिकरण निष्क्रिय कीजिए सुरिन्‍दर जी। डेशबोर्ड में कमेंट में जाकर। आफ का बटन करके क्लिक।

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