Wednesday, September 15, 2010

बदहाल

बदहाल


ग़मे  हिज्र   की  सूरते   हाल  न   पूछ,
हुआ दिल को कितना मलाल न पूछ

शब   भर  वहाँ  बसी थी  खामोशियाँ,
सहर  हुई  मचा   नया बवाल  न पूछ

आज़ाद   लोगों  के   वास्ते    रोज़  ही,
बुना   बेबसी  ने   एक   जाल  न  पूछ

तू  एक  गुलाम   है   चुप   ही    रहना,
सर  झुका  कर काम   सवाल न पूछ

बिना  खता  के भी  तुझे   सज़ा   देंगे,
तेरे जिस्म पे  न  होंगे  बाल  न   पूछ

सर्द  आहों  में  सुलगे  हैं  जो   अरमां,
दिल  की  तरंगों  का  उबाल  न   पूछ

इब्तिदा   और   इंतिहा   में   फसा  है,
''रत्ती''  दीदा-ए-तर  बदहाल  न  पूछ 

9 comments:

  1. Kya haal bayan kiya game hijr ka!

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  2. आप की रचना 17 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com


    आभार

    pls. apna word verification hata le.

    अनामिका

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  3. Bahut hee gahre bhav.......
    Kaee bar padee aap kee rachna !
    Dil mein utratee gayee !!!

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  4. तू एक गुलाम है चुप ही रहना
    सर झुका कर काम सवाल न पूछ|

    बदहाली को अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर दिया है आपने

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  5. बहुत उम्दा रचना.

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  6. जिस तरह से बयाँ किया हालत- ए- हाल , किस तरह से तारीफ करू की न पूछ ... उम्दा लिखा है आपने

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  7. मेरे ब्लॉग में पधारकर उत्साह वर्धन करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद सुरेन्द्र जी

    !! जय श्री श्यामसुन्दर की !!

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  8. तू एक गुलाम है तू सवाल न कर ....

    बहुत ही उम्दा...

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