Tuesday, May 27, 2008

मृगतृष्णा

मृगतृष्णा

होड़ पड़ी धरा पर
समेट ले़ जग को
अपनें आँचल मे
हाथ तो निरन्तर लगे रहे
चौबीसों घण्टों कुछ पाने को
लक्ष्य को सामनें रख
लम्बी गलियों में चलते रहे
काश कि गगन को छू लेते
लालसा भी इतनी के
पानी से प्यास तो बुझे पर
ये मृगतृष्णा टस से मस नहीं होती
आखिरी साँस तक पीछा नहीं छोड़ती
ये मृगतृष्णा है, लालसा है, क्या है
शायद भ्रम हो गया है
एक ऐसी धुन्धली परछाई
जिसमे मानव भटक जाता है
सब भूल जाता है
बिखर जाता है .....

2 comments:

  1. बहुत अच्छी लगी आपकी कविता मृगतृष्णा

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  2. ये मृगतृष्णा टस से मस नहीं होती
    आखिरी साँस तक पीछा नहीं छोड़ती
    "very true, good poetry"

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