Tuesday, April 20, 2010

बादल

बादल


एक निगाह झरोखे को चीरती
निहारती बड़े  अदब से
दिल ही दिल में पुकारती
तिश्नगी  लबों पे लिये
हलक सहलाते-सहलाते
फलक़ की तरफ देखा उसने
आफताब अपनी पूरी ताक़त  के साथ
तमाज़त बरसा रहा था
ज़मीं तो तवे जैसी तप रही थी
पांव रखते ही जलने का अहसास कराती
इधर कुछ दिनों से साज़ीश की बू आने लगी है
सूरज ने बादल से दोस्ताना बढ़ाया है
दोनों ने मिल कर हमारा खून  सुखाया है
सियासत की कौन सी चाल कब खेलनी है
अवाम को कैसे धोखा देना है
और फिर ऐसा मालूम होता है
बादल अब सरकारी मुलाज़िम हो गये हैं
जब चाहा आते हैं और जब चाहा चले जाते हैं
बेरोकटोक
ये बड़े हरजाई हैं
बरसते हैं तो समंदरों के सीने पर
झरनों के माथे पर,
नदिया के निचले किनारे पर
और मेहरबां हैं संगदिल पर्बतों पर
उनको नेहलाते हैं, ठन्डक देते हैं
मासूमियत भरे चेहरे लिये ताक़ते  हैं
सूखी बंजर ज़मीं की ओर
ऐसा जतलाते हैं वो नावाकिफ़ हैं
यहाँ के हालात से
तुम अज़ीम बन के न फिरो
तुम्हारा ये रवैय्या नागवार है हमको
इतने बेरहम न बनो
बस एक इल्तजा है तुमसे
बरसो बरसो बरसो ..... 

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